: कारतक : २४९४ आत्मधर्म : ९ :
परम शांतिदातारी अध्यात्मभावना
(लेखांक पप: अंक २८७ थी चालु)
भगवानश्री पूज्यपादस्वामीरचित समाधिशतक उपर पूज्यश्री
कानजीस्वामीनां अध्यात्मभावनाभरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
(वीर सं २४८२ श्रावण सुद दसमी बुधवार ता. १प–८–प६ समाधिशतक गा. ९४)
अज्ञानीनी सर्व अवस्थाओ भ्रमरूप छे, भले ते जागतो होय, शास्त्रो भणतो होय,
तोपण देहादिने आत्मा माननारो ते जीव अबुध छे, ऊंघतो ज छे, मूर्ख ज छे. अने आत्माने
देहथी भिन्न जाणनार ज्ञानी ऊंंघ वखते के मूर्छा वखते पण प्रबुद्ध छे, स्वरूपमां जागृत छे,
विवेकी छे.
अहीं कोई बहिरात्मा कहे छे के बाल–वृद्ध वगेरे शरीरनी अवस्थारूपे आत्माने माननार
अज्ञानी पण शास्त्रो भणीने अने निद्रारहित थईने मुक्ति पामी जशे ‘! –तो आचार्यदेव तेना
उत्तरमां कहे छे के–
विदिताशेषशास्त्रोऽपि न जाग्रदपि मुच्यते।
देहात्मद्रष्टिर्ज्ञातात्मा सुप्तोन्मतोऽपि मुच्यते।९४।
भले घणा शास्त्रो भण्यो होय अने जागतो होय, तोपण देह ते ज आत्मा एवी जेनी
द्रष्टि छे ते जीव मुक्ति पामतो नथी, जागतो होवा छतां अने शास्त्रो भणवा छतां ते बंधाय ज
छे. शास्त्रो भणवानो सार तो देहादिथी भिन्न ज्ञानस्वरूप आत्माने जाणवो–ते हतो, ते तो
अज्ञानी जाणतो नथी, एटले खरेखर ते शास्त्र भण्यो ज नथी, शास्त्रोनो जे आशय हतो तेने
तो ते समज्यो नथी. अने जेणे देहादिथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने जाण्यो छे एवा ज्ञानी
ऊंघ वखते पण छूटता ज जाय छे; ऊंघ वखते य ज्ञानमां ज एकतापणे परिणमे छे, रागादिमां
एकतापणे परिणमता नथी तेथी क्षणेक्षणे तेने छूटकारो ज थतो जाय छे; सुप्त अने उन्मत
अवस्था वखते पण भेदज्ञानना बळे तेने विशिष्ट कर्मनिर्जरा थया ज करे छे. जुओ अज्ञानी
सर्व अवस्थाओमां बंधाय ज छे, ने ज्ञानी सर्व अवस्थाओमां मुकाय ज छे. भले शास्त्रोना
शब्दो वांचतां न आवडतुं होय पण देहादिथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने जेणे जाण्यो तेणे
सर्वे शास्त्रोनुं रहस्य जाणी लीधुं छे.
‘अज्ञानी ऊंघता सारा ने ज्ञानी जागता सारा, केमके अज्ञानी ऊंघतो होय तो ऊंघमां