छे. अज्ञानीने जागतो होय त्यारे पाप बंधाय ने ऊंघ वखते तेने पाप न थाय–ए तारी भ्रमणा
छे. ए ज प्रमाणे ज्ञानीने जागृतदशामां धर्म रहे ने ऊंघ वखते भान चाल्युं जाय–एम नथी, ऊंघ
वखतेय ज्ञानीने आत्मभान वर्ती ज रह्युं छे. ऊंघदशा होय के जागृतदशा हो, विवेकी दशा हो के
उन्मत जेवी दशा होय, तोपण ज्ञानीने बधी अवस्थामां आत्मज्ञान सरखुं ज छे, ने अज्ञानीने
बधी अवस्थामां अज्ञान ज वर्ती रह्युं होय छे. जेमां जेने हितबुद्धि होय छे तेमां ज तेना श्रद्धा–
ज्ञान वर्ते छे. ज्ञानीने आत्मामां ज हितबुद्धि छे तेथी ऊंघ वखते पण तेने आत्माना श्रद्धा–ज्ञान
वर्ते छे. अने अज्ञानीने देहादि बाह्य विषयोमां सुखबुद्वि छे तेथी तेने सदाय देहादिमां ज श्रद्धा–
ज्ञान लीनता वर्ते छे. ज्ञानीने ज्ञानस्वरूप आत्मानुं भान क्षणेक्षणे वर्ती रह्युं छे ते ज तेनी
मुक्तिनी निशानी छे. आ रीते भेदज्ञान करीने निर्विकल्प प्रतीति अने अनुभवनी द्रढता करवी
ते ज मोक्षनो सर्वोपरी मुख्य उपाय छे, ने ते ज उपादेय छे.
उत्तर:– ज्ञानानंद स्वरूपमां अंतर्मुख थईने निर्विकल्प अनुभव थाय त्यांसुधी भेदज्ञाननो
लीनतानो वारंवार प्रयत्न कर्या ज करवो. आ रीते आत्माना ज्ञानानंद स्वरूपने जाणीने तेमां
लीनता करवी ते ज मोक्षनो श्रेष्ठ उपाय छे, –ते एक ज उपाय छे अने बीजो कोई उपाय नथी. हुं
ज्ञानस्वरूपी आत्मा छुं–एम निर्णय करीने तेनुं ज अवधान करवुं, तेने ज ध्यानमां धारवो. ए
रीते ज्ञानस्वरूप आत्मानी श्रद्धा करीने तेमां लीनता करतां मुक्ति थाय छे.
यत्रैव जायते श्रद्धा चितं तत्रैव लीयते।।९५।।
धर्मात्माने पोताना आत्मस्वरूपमां ज हितबुद्धि होवाथी तेने ऊंघ वगेरे दशा वखते पण तेनी
श्रद्धा वर्त्या ज करे छे. अने अज्ञानीने बाह्य विषयोमां हितबुद्धि होवाथी तेने बाह्यविषयोमां ज
श्रद्धा अने लीनता