Atmadharma magazine - Ank 289
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : कारतक : २४९४
पाप तो न करे! ’ –एम केटलाक जीवो कहे छे. पण अहीं तो आचार्यदेव कहे छे के अरे
भाई! देहमां आत्मबुद्धिने लीधे अज्ञानी जीव ऊंघ वखतेय मिथ्यात्वनुं महापाप बांधी ज रह्यो
छे. अज्ञानीने जागतो होय त्यारे पाप बंधाय ने ऊंघ वखते तेने पाप न थाय–ए तारी भ्रमणा
छे. ए ज प्रमाणे ज्ञानीने जागृतदशामां धर्म रहे ने ऊंघ वखते भान चाल्युं जाय–एम नथी, ऊंघ
वखतेय ज्ञानीने आत्मभान वर्ती ज रह्युं छे. ऊंघदशा होय के जागृतदशा हो, विवेकी दशा हो के
उन्मत जेवी दशा होय, तोपण ज्ञानीने बधी अवस्थामां आत्मज्ञान सरखुं ज छे, ने अज्ञानीने
बधी अवस्थामां अज्ञान ज वर्ती रह्युं होय छे. जेमां जेने हितबुद्धि होय छे तेमां ज तेना श्रद्धा–
ज्ञान वर्ते छे. ज्ञानीने आत्मामां ज हितबुद्धि छे तेथी ऊंघ वखते पण तेने आत्माना श्रद्धा–ज्ञान
वर्ते छे. अने अज्ञानीने देहादि बाह्य विषयोमां सुखबुद्वि छे तेथी तेने सदाय देहादिमां ज श्रद्धा–
ज्ञान लीनता वर्ते छे. ज्ञानीने ज्ञानस्वरूप आत्मानुं भान क्षणेक्षणे वर्ती रह्युं छे ते ज तेनी
मुक्तिनी निशानी छे. आ रीते भेदज्ञान करीने निर्विकल्प प्रतीति अने अनुभवनी द्रढता करवी
ते ज मोक्षनो सर्वोपरी मुख्य उपाय छे, ने ते ज उपादेय छे.
प्रश्न:– भेदज्ञाननो अभ्यास क््यां सुधी करवो?
उत्तर:– ज्ञानानंद स्वरूपमां अंतर्मुख थईने निर्विकल्प अनुभव थाय त्यांसुधी भेदज्ञाननो
प्रयत्न कर्या ज करवो. ने भेदज्ञान पछी पण केवळज्ञान थाय त्यां सुधी ते ज्ञानानंदस्वरूपमां
लीनतानो वारंवार प्रयत्न कर्या ज करवो. आ रीते आत्माना ज्ञानानंद स्वरूपने जाणीने तेमां
लीनता करवी ते ज मोक्षनो श्रेष्ठ उपाय छे, –ते एक ज उपाय छे अने बीजो कोई उपाय नथी. हुं
ज्ञानस्वरूपी आत्मा छुं–एम निर्णय करीने तेनुं ज अवधान करवुं, तेने ज ध्यानमां धारवो. ए
रीते ज्ञानस्वरूप आत्मानी श्रद्धा करीने तेमां लीनता करतां मुक्ति थाय छे.
।। ९४।।
सुप्त वगेरे अवस्थामां पण ज्ञानीने स्वरूपनुं संवेदन केम रह्या करे छे? ते वात हवे स्पष्ट
करे छे–
यत्रैवहितधीः पुंसः श्रद्धा तत्रैव जायते।
यत्रैव जायते श्रद्धा चितं तत्रैव लीयते।।९५।।
“आमां ज मारुं हित छे” –एम जे विषयमां जीवने हितबुद्धि थाय छे तेमां ज तेने श्रद्धा
उत्पन्न थाय छे, अने जे विषयमां श्रद्धा थाय छे तेमां ज तेना चित्तनी लीनता थाय छे.
धर्मात्माने पोताना आत्मस्वरूपमां ज हितबुद्धि होवाथी तेने ऊंघ वगेरे दशा वखते पण तेनी
श्रद्धा वर्त्या ज करे छे. अने अज्ञानीने बाह्य विषयोमां हितबुद्धि होवाथी तेने बाह्यविषयोमां ज
श्रद्धा अने लीनता