Atmadharma magazine - Ank 289
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 19 of 45

background image
: १६ : आत्मधर्म : कारतक : २४९४
पण अमारी साथे तारी मुद्रा (लक्षण) मेळवीने जो तो खरो, तो तने खातरी थशे के तुं पण
अमारा जेवो ज छो. स्वसंवेदनवडे तारा स्वच्छ ज्ञानसरोवरमां देख तो तने तारी प्रभुता
तारामां स्पष्ट देखाशे. स्वसन्मुख वीर्य उल्लसावीने श्रद्धारूपी सिंहनाद कर, तो तने खातरी थशे
के हुं पण सिद्धपरमात्मा जेवो छुं, मारामांय सिद्ध जेवुं पराक्रम भर्युं छे! प्रभुताथी भरेलो तारो
आत्मा पोताना उत्पाद–व्यय–ध्रुवमां अनंत स्वभावोसहित परिणमी रह्यो छे. आवा
चैतन्यतत्त्वना भान वगर चार गतिनो अभाव केम थाय? ने आनंद क््यांथी प्रगटे? चार गति
के ते गतिनो भाव जेनामां नथी एवा चिदानंदस्वभावनी सन्मुख थतां चार गतिनो अभाव
थईने सिद्धपदनी प्राप्ति थाय छे.
एक टचुकडी वात: (भगवान रामचंद्रजीना
पूर्वभवनो एक प्रसंग)
भरतक्षेत्रमां धनदत नामनो एक वणिक हतो. एकवार
मार्गमां अत्यंत थाकेलो ते धनदत खेदखिन्न थईने सूर्यास्त पछी
कोई धार्मिक आश्रममां पहोंच्यो. तेने तरस खूब लागी हती, तेथी
त्यां कोई महात्माने जोईने कह्युं–आप पुण्यकार्य करनारा छो, हुं बहु
तरस्यो छुं माटे मने पाणी आपो! त्यारे ते महात्माए तेने
सान्तवना देतां मधुरवाणीथी कह्युं–हे वत्स! रात्रिमां अमृत पण पीवुं
उचित नथी, तोपछी पाणीनी तो शुं वात? ज्यारे आंख पोतानो
वेपार (देखवानुं) छोडी दे छे, आंखथी न देखाय एवा सूक्ष्म जीवो
ज्यारे चारेकोर फरता होय छे–एवा अंधकारमां रात्रिसमये तुं
भोजन–पान मत कर. हे बंधु! कष्ट थाय तोपण तुं रात्रि भोजन न
कर. रात्रिभोजन करीने दुःखथी भरेला संसारसमुद्रमां न पड.
धर्मात्मानी अमृत जेवी मधुरवाणी सांभळतां धनदत्तनुं मन
शांत थई गयुं, ने प्रसन्नताथी तेना चित्तमां दया प्रगटी. तेथी तेणे
अणुव्रत धारण कर्या, अल्पशक्तिने लीधे ते महाव्रत धारण करी न
शक््यो. अणुव्रतसहित देह छोडीने ते स्वर्गनो देव थयो. –बंधुओ,
आ धनदत्तनो जीव ए ज आगळ जतां आपणा भगवान रामचंद्रजी
थयां.
–पद्मपुराण पृ. ३०१ (नवुं)