Atmadharma magazine - Ank 289
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४९४ आत्मधर्म : १७ :
परम शांतिदातारी अध्यात्मभावना
(लेखांक–प६)
(वीर सं. २४८२ श्रावण सुद ११)
जीवने जेमां हितबुद्धि होय छे तेमां श्रद्धा अने लिनता थाय छे ए वात गाथा ९प मां
करी. हवे, जे विषयमां जीवने हितबुद्धि न होय ते विषयमां तेने श्रद्धा के लीनता थती नथी,
एटले तेमां ते अनासक्त ज होय छे, –एम कहे छे–
यत्रानाहितधीःपुंसःश्रद्धा तस्मान्निवर्तते।
यस्मान्निवर्तते श्रद्धा कुतश्चित्तस्य तल्लयः।। ९६ ।।
हुं ज्ञानस्वरूप आत्मा छुं ने देहादि अचेतन छे–एम ज्यां बंनेनी भिन्नता जाणी, त्यां
आत्मामां आत्मबुद्धि थईने देहमांथी आत्मबुद्धि छूटी गई. जेमां आत्मबुद्धि न होय तेमां
लीनता पण होय नहीं. जेने पोताथी खरेखर भिन्न जाण्या ते विषयोमां सुखबुद्धि न रही,
सुखबुद्धि न रही एटले श्रद्धा तेनाथी पाछी फरी गई, ने जेमां श्रद्धा न होय तेमां लीनता पण
होय नहीं. –आ रीते ज्ञानी धर्मात्मा जगतना सर्व विषयो प्रत्ये अनासक्त छे.
अरे जीव! एकवार तुं नक्की तो कर के तारुं हित ने तारुं सुख शेमां छे? जेमां सुख लागे
तेनी रुचि ने तेमां लीनता थाय. आत्मानुं ज्ञानपद बतावीने आचार्यदेव कहे छे के–
आमां सदा प्रीतिवंत बन, आमां सदा संतुष्ट ने
आनाथी बन तुं तृप्त, तुजने सुख अहो! उत्तम थशे.
आ ज्ञानस्वरूप आत्मा सिवाय बीजे क््यांय तारुं सुख नथी, माटे तेनी रुचि न कर,
प्रीति न कर, तेमां एकता न मान. सुख तो आत्माना अनुभवमां छे. एकवार आवुं लक्ष करे
तोय एना परिणामनो वेग पर तरफथी पाछो वळी जाय.....एना विषयो अति मंद पडी जाय;
जेमां सुख नहि तेनो उत्साह शो? ज्ञानी बाह्यसामग्री वच्चे ऊभेला देखाय, राग पण देखाय,
पण एनी रुचिनी दिशा पलटी गई छे, एनी श्रद्धा शुद्धात्मामां ज प्रवेशी गई छे, एटले
शुद्धात्मानी श्रद्धा के प्रीति छोडीने तेने कोई राग आवतो नथी. स्वभावनुं