पण अमने आवा संतना दर्शन क््यांथी!! –एम तेओ उल्लासमां आवी गया ने देहनुं दरद तो
क्षणभर भूलाई गयुं.
आपतां कह्युं–भाई, ए काळे अबुद्धिपूर्वक राग वर्ते भले, पण स्वानुभूतिमां तो ते रागनो
अभाव छे, स्वानुभूतिमां तो राग वगरनो चैतन्यमय आत्मा ज प्रकाशे छे, अबुद्धिपूर्वकनो राग
पण स्वानुभूतिथी जुदो ज रहे छे. आ उपरांत ज्ञानी ज्यारे स्वानुभूतिमां न होय ने
बुद्धिपूर्वकनो राग वर्ततो होय त्यारे पण ते ज्ञानी ते रागने भिन्नपणे ज जाणे छे, ते राग साथे
ज्ञाननी एकता ते वखतेय तेमने भासती नथी. प्रज्ञाछीणी वडे ज्ञान अने रागनी एकताने छेदी
नांखी छे, तेमां फरीने हवे ज्ञानीने एकता थती नथी.
पहेलांं ओळखाण थवी जोईए, आत्मा तो ज्ञानस्वरूप जाणनार छे, ते आ शरीरथी भिन्न छे.
–एम सत्समागमे वारंवार अभ्यास करे तो आत्मा लक्षमां आवे, ने आ देहबुद्धि छूटी जाय.
चर्चा सांभळे छे, –त्यारे श्रीमद् राजचंद्रजीनुं ए वचन याद आवे छे के ‘सद्गुरुवैद्य सुजाण’
आत्माने
ने तेनुं ध्यान करवा जेवुं छे. ज्ञानी कहे छे के हे भाई! देहने अर्थे तो आत्मा अनंतवार गाळ्यो,
पण हवे एकवार आत्माने अर्थे देह एवी रीते गाळ के जेथी फरीने देह मळे ज नहीं.