Atmadharma magazine - Ank 289
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४९४ आत्मधर्म : २१ :
टी. बी. नी ईस्पितालमां एक प्रसंग–
ज्यां संतना दर्शने देहनां र्द भूलाई जाय छे,
ने स्वानुभूतिनी भावना जागे छे
गत आसो मासमां गुरुदेव अमरगढनी ईस्पितालनी मुलाकाते पधारेला. त्यांना अनेक
दरदीओ गुरुदेवना दर्शन करीने आनंदित थया...अहा! ईस्पितालनी टी. बी. नी पथारी वच्चे
पण अमने आवा संतना दर्शन क््यांथी!! –एम तेओ उल्लासमां आवी गया ने देहनुं दरद तो
क्षणभर भूलाई गयुं.
ते वखते राजस्थानना एक जिज्ञासु भाई, –के जेओ ईस्पितालमां टी. बी.नी सारवार
लई रह्या छे, तेमणे गुरुदेवने पूछयुं– स्वानुभूति वखते अबुद्धिपूर्वक राग होय? गुरुदेवे जवाब
आपतां कह्युं–भाई, ए काळे अबुद्धिपूर्वक राग वर्ते भले, पण स्वानुभूतिमां तो ते रागनो
अभाव छे, स्वानुभूतिमां तो राग वगरनो चैतन्यमय आत्मा ज प्रकाशे छे, अबुद्धिपूर्वकनो राग
पण स्वानुभूतिथी जुदो ज रहे छे. आ उपरांत ज्ञानी ज्यारे स्वानुभूतिमां न होय ने
बुद्धिपूर्वकनो राग वर्ततो होय त्यारे पण ते ज्ञानी ते रागने भिन्नपणे ज जाणे छे, ते राग साथे
ज्ञाननी एकता ते वखतेय तेमने भासती नथी. प्रज्ञाछीणी वडे ज्ञान अने रागनी एकताने छेदी
नांखी छे, तेमां फरीने हवे ज्ञानीने एकता थती नथी.
ईस्पितालना बीजा एक गुजराती भाईए पूछयुं के–आ देह उपर लक्ष जाय छे ने आत्मा
उपर लक्ष केम नथी जातुं? त्यारे गुरुदेवे समजाव्युं के भाई, आ देह अने आत्मा जुदा छे–तेनी
पहेलांं ओळखाण थवी जोईए, आत्मा तो ज्ञानस्वरूप जाणनार छे, ते आ शरीरथी भिन्न छे.
–एम सत्समागमे वारंवार अभ्यास करे तो आत्मा लक्षमां आवे, ने आ देहबुद्धि छूटी जाय.
वाह, टी. बी. नी ईस्पिताल वच्चेय ज्यां दर्दीओ देहथी भिन्न आत्माने याद करे छे,
तथा देहातीत ने रागातीत स्वानुभूतिनी चर्चा चाले छे ने दर्दीओ देहनी चिंता छोडीने होंशथी ते
चर्चा सांभळे छे, –त्यारे श्रीमद् राजचंद्रजीनुं ए वचन याद आवे छे के ‘सद्गुरुवैद्य सुजाण’
आत्माने
भवरोग मटाडवा माटे सद्गुरुज्ञानी ए ज साचा वैद्य छे. अने, परम शांतरसथी
भरेला वीतरागनां वचनामृत ए ज आ भवरोगने मटाडवानी परम औषधि छे. तेना विचार
ने तेनुं ध्यान करवा जेवुं छे. ज्ञानी कहे छे के हे भाई! देहने अर्थे तो आत्मा अनंतवार गाळ्‌यो,
पण हवे एकवार आत्माने अर्थे देह एवी रीते गाळ के जेथी फरीने देह मळे ज नहीं.