Atmadharma magazine - Ank 289
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४९४ आत्मधर्म : २३ :
त्त्र्
(सर्वे जिज्ञासुओनो प्रिय विभाग)
* “जो तुमको सम्यग्दर्शन प्राप्त करना हो, आत्माकी शान्ति करनी हो तो जरूर
सोनगढ आओ, –वहाँ अपूर्व शान्तिका जीवन है।
(आगरामां नेमिचंदभाई रखियालवाळाना उद्गार)
“साधर्मीओने एकबीजा प्रत्ये अंतरथी सहानुभूति होय ज. तेमांय वैराग्यप्रसंगे विशेष
लागणी जागे–ए सहज छे. भाई, सर्व प्रसंगे वैराग्यभावना ए ज उपाय अने शरण छे.
गुरुदेव कहे छे के–जीवनुं शुद्धस्वरूप एवुं छे के जेनी ओळखाण करतां जन्म–मरण टळे ने
मोक्षसुख मळे. स्वानुभवथी जणाय एवो आत्मा छे, ने आवो अनुभव करनार जीवने बीजे
क््यांय जगतमां सुख लागे नहि, बीजे क््यांय अधिकता भासे नहीं. जन्म–मरणथी छूटवा माटे
पोताना आवा शुद्धआत्माने जाणवो जोईए.”
(– एक पत्रमांथी)
* सत्य नं. प७: भाईश्री, आपे एक साथे घणा प्रश्नो लख्या, एनी चर्चा माटे खूब
विस्तार करवो पडे. आ विभागमां एटलो अवकाश नथी; तेमज मतभेदवाळी चर्चाओ आपणे
आ विभागमां लेता नथी. खास करीने बाळकोना हृदयमां ऊठता जिज्ञासाना तरंगो, तथा
प्राथमिक जिज्ञासुओने मार्गदर्शन मळे एवी प्रश्न–चर्चाओने आपणे स्थान आपीए छीए.
(आपना प्रश्नोमांथी बेत्रण प्रश्नो लीधा छे.)
प्रश्न:– निश्चयनी अपेक्षाए व्यवहार जुठो छे तो व्यवहारनी अपेक्षाए निश्चयने जुठो
कही शकाय के नहीं?
उत्तर:– जेम आत्मानी अपेक्षाए विकास हेय छे, तेम विकारनी अपेक्षाए आत्मा हेय छे–
एम जो कोई कहे तो ते जेम तद्न विपरीत छे, एवो, ज उपरनो प्रश्न छे. भाईश्री, निश्चयने
एटले के शुद्धआत्माने उपादेय करीने व्यवहारने हेय करवो तेमां तो जीवने शुद्धतानुं प्रयोजन
सधाय छे, मोक्षमार्ग सधाय छे; त्यारे निश्चयने जुठो कहेवो तेमां तो शुद्धआत्मानो सीधो अनादर
छे. एनाथी कोई ज प्रयोजन सधातुं नथी; पण उलटुं अहित थाय छे. माटे उपरनुं प्रतिपादन
निष्प्रयोजन छे.
प्रश्न:– अकाळमरण एटले शुं?
उत्तर:– आयुष्यकर्म बंधायुं ते वखते