: कारतक : २४९४ आत्मधर्म : २९ :
(२) श्री जिन वीतरागे द्रव्य–भाव संयोगथी फरी फरी छूटवानी भलामण कही छे; अने
ते संयोगनो विश्वास परम ज्ञानीने पण कर्तव्य नथी, एवो अखंड मार्ग कह्यो छे, ते श्री
जिनवीतरागना चरणकमळ प्रत्ये अत्यंत भक्तिथी नमस्कार. (प८८)
(३) अनादिकाळथी जीव अवळे मार्गे चाल्यो छे; जोके तेणे जप, तप, शास्त्राध्ययन
वगेरे अनंतवार कर्युं छे, तथापि जे कंई पण अवश्य करवा योग्य हतुं ते तेणे कर्युं नथी.”
(१९४)
(४) जो कोई आत्मजोग बने तो, आ मनुष्यपणानुं मूल्य कोई रीते न थई शके तेवुं
छे...... आ ज देहमां आत्मजोग उत्पन्न करवो घटे. (प६९)
(४अ) आत्मा सौथी अत्यंत प्रत्यक्ष छे–एवो परमपुरुषे करेलो निश्चय ते पण अत्यंत
प्रत्यक्ष छे.
(प) आत्माने ओळखवो होय तो आत्माना परिचयी थवुं, परवस्तुना त्यागी थवुं.
(८प)
(६) आ काळने विषे पूर्वे क््यारे पण नहीं जाणेलो, नहीं प्रतीत करेलो, नहीं आराधेलो,
तथा नहीं स्वभावसिद्ध थयेलो एवो ‘मार्ग’ प्राप्त करवो दुष्कर होय, एमां आश्चर्य नथी. तथापि,
जेणे ते प्राप्त करवा सिवाय बीजो कोई लक्ष राख्यो ज नथी ते आ काळने विषे पण अवश्य ते
मार्गने पामे छे. (७२७)
(७) श्री ऋषभदेवजी भगवाननो ९८ पुत्रोने उपदेश:–
हे आयुष्यमानो! आ जीवे सर्व कर्युं छे, एक आ विना.....ते शुं? तो के निश्चय कहीए
छीए के सत्पुरुषनुं कहेलुं वचन, तेनो उपदेश ते सांभळ्या नथी, अथवा रूडे प्रकारे करी ते उठाव्या
नथी. (१९४)
(८) जीवे मुख्यमां मुख्य अने अवश्यमां अवश्य एवो निश्चय राखवो के जे कांई मारे
करवुं छे ते आत्माने कल्याणरूप थाय ते ज करवुं छे. (६०९)
(९) सर्व कार्यमां कर्तव्य मात्र आत्मार्थ छे, ए संभावना नित्य मुमुक्षु जीवे करवी योग्य
छे. (६७०)
(१०) अनियमित अने अल्प आयुष्यवाळा आ देहे आत्मार्थनो लक्ष सौथी प्रथम
कर्तव्य छे. (७१२)
(११) आत्मामां विशेष आकुळता न थाय तेम राखशो. जे थवा योग्य हशे ते थई रहेशे,
अने आकुळता करतां पण जे थवा योग्य हशे ते थशे, तेनी साथे आत्मा पण अपराधी थशे.
(१२) परमात्मा एम कहे छे के–तमे तमारा कुटुंब प्रत्ये निःस्नेह हो, अने तेना