: ३० : आत्मधर्म : कारतक : २४९४
प्रत्ये समभावी थई प्रतिबंध रहित थाओ; ते तमारुं छे–एम न मानो. (२२३)
(१३) परमात्मामां परम स्नेह, गमे तेवी विकट वाटेथी थतो होय तोपण करवो योग्य ज छे.
(१४) देहधारीने विटंबना ए तो एक धर्म छे, त्यां खेद करीने आत्मविस्मरण शुं करवुं?
(१३४)
(१प) ‘हुं शरीर नथी पण तेथी भिन्न एवो ज्ञायक आत्मा छुं, तेम नित्य शाश्वत छुं;
आ वेदना मात्र पूर्वकर्मनी छे, पण मारुं स्वरूप नाश करवाने ते समर्थ नथी; माटे खेद कर्तव्य
नथी’ –एम आत्मार्थीनुं अनुप्रेक्षण होय छे. (९२७)
(१६) संसार स्पष्ट प्रीतिथी करवानी ईच्छा थती होय तो ते पुरुषे ज्ञानीनां वचन
सांभळ्या नथी, अथवा ज्ञानीपुरुषनां दर्शन पण तेणे कर्या नथी, एम श्री तीर्थंकर कहे छे.
(४प४)
(१७) ज्ञानीपुरूषने कायाने विषे आत्मबुद्धि थती नथी, अने आत्माने विषे कायाबुद्धि
थती नथी; बेय स्पष्ट भिन्न तेना ज्ञानमां वर्ते छे. (प०९)
(१८) अमारा चित्तमां तो एम आवे छे के मुमुक्षु जीवने आ काळने विषे संसारनी
प्रतिकूळदशाओ प्राप्त थवी ते तेने संसारथी तरवा बराबर छे. अनंतकाळथी अभ्यासेलो एवो
आ संसार स्पष्ट विचारवानो वखत प्रतिकूळ प्रसंगे विशेष होय छे, ए वात निश्चय करवा
योग्य छे. (४९२)
(१९) सर्व जगतना जीवो कंईने कंई मेळवीने सुख प्राप्त करवा ईच्छे छे; मोटो चक्रवर्ती
राजा ते पण वधता वैभव–परिग्रहना संकल्पमां प्रयत्नवान छे. अने मेळववामां सुख माने छे.–
–पण अहो! ज्ञानीओए तो तेनाथी विपरीत ज सुखनो मार्ग निश्चित कर्यो के– ‘किंचित्
मात्र पण ग्रहवुं ए ज सुखनो नाश छे. ’ (८३२)
(२०) ज्ञानीपुरुष प्रत्ये अभिन्नबुद्धि थाय, ए कल्याण विषेनो मोटो निश्चय छे.
(४७०)
(२१) ज्ञानीपुरुषनो निश्चय थई अंतरभेद न रहे तो आत्मप्राप्ति साव सुलभ छे, एवुं
ज्ञानी पोकारी गया छतां केम लोको भूले छे? (६४२)
(२२) मुख्य अंतराय होय तो ते जीवनो अनिश्चय छे. (८२६)
(२३) ज्ञानीपुरुष अने परमात्मामां अंतर ज नथी. अने जे कोई अंतर माने छे तेने
मार्गनी प्राप्ति परम विकट छे. (२२३)
(२४) ज्ञानी तो परमात्मा ज छे; अने तेनी ओळखाण विना परमात्मानी प्राप्ति थती
नथी. (२२३)