Atmadharma magazine - Ank 289
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४९४ आत्मधर्म : ३७ :
H श्रीमद् राजचंद्रनां वचनामृत H
(अनुसंधान पृष्ठ ३२ थी)
(प१) दुर्लभ एवो मनुष्यदेह पण पूर्वे अनंतवार प्राप्त थया छतां कंई पण सफळपणुं थयुं
नहीं; पण आ मनुष्यदेहे कृतार्थता छे के जे मनुष्यदेहे आ जीवे ज्ञानीपुरुषने ओळख्या,
तथा ते महाभाग्यनो आश्रय कर्यो. (६९२)
(प२) दुर्लभयोग जीवने प्राप्त थयो, तो पछी थोडोक प्रमाद छोडी देवामां जीवे मुंझावा जेवुं
अथवा निराश थवा जेवुं कंई ज नथी. (८२९)
(प३) हे आत्मन्! तें आ मनुष्यपणुं काकतालीयन्यायथी प्राप्त कर्युं छे तो तारे पोतामां
पोतानो निश्चय करीने पोतानुं कर्तव्य सफळ करवुं जोईए. (१०२)
(प४) जे अनित्य छे, जे असार छे, अने जे अशरणरूप छे, ते आ जीवने प्रीतिनुं कारण केम
थाय छे? ते वात रात्रिदिवस विचारवा योग्य छे. (८१०)
(पप) अनंतवार देहने अर्थे आत्मा गाळ्‌यो छे; जे देह आत्माने अर्थे गळाशे ते देहे
आत्मविचार जन्म पामवा योग्य जाणी, सर्वे देहार्थनी कल्पना छोडी दई एकमात्र
आत्मार्थमां ज तेनो उपयोग करवो, एवो मुमुक्षुजीवने अवश्य निश्चय जोईए. (७१९)
(प६) एक भवना थोडा सुखने माटे अनंत भवनुं दुःख नहीं वधारवानो प्रयत्न सत्पुरुषो करे
छे.
(४७)
(प७) देहनी जेटली चिंता राखे छे तेटली नहीं, पण एथी अनंतगणी चिंता आत्मानी राख,
कारण अनंतभव एकभवमां टाळवा छे. (८४)
(प८) जे मुमुक्षु जीव गृहस्थ–व्यवहारमां वर्तता होय तेणे तो अखंड नीतिनुं मूळ प्रथम
आत्मामां स्थापवुं जोईए, नहि तो उपदेशादिनुं निष्फळपणुं थाय छे. ए नीति मुकतां
प्राण जाय, एवी दशा आव्ये त्याग–वैराग्य खरा स्वरूपमां प्रगटे छे; अने ते ज जीवने
सत्पुरुषनां वचननुं तथा आज्ञाधर्मनुं अद्भुत सामर्थ्य, माहात्म्य अने रहस्य समजाय
छे. (४९६)
(प९) गृहवासनो जेने उदय वर्ते छे ते जो कंई पण शुभध्याननी प्राप्ति करवा ईच्छता होय तो
तेना मूळ हेतुभूत एवा अमुक सद्वर्तनपूर्वक रहेवुं योग्य छे; जे अमुक नियममां
‘न्याय–संपन्न आजीविकादि व्यवहार’ ते पहेलो नियम साध्य करवो घटे छे. (८७२)