Atmadharma magazine - Ank 289
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४९४ आत्मधर्म : ३९ :
आ अनादि अनंत संसारमां अनंतअनंत जीवो तारा आश्रय विना अनंत अनंत
दुःखने अनुभवे छे.
(७१) अनादिथी जे ज्ञान भवहेतु थतुं हतुं ते ज्ञानने एक समयमात्रमां जात्यंतर करी जेणे
भवनिवृत्तिरूप कर्युं ते कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शनने नमस्कार (८३९)
(७२) धर्म ए वस्तु बहु गुप्त रही छे, ते बाह्य संशोधनथी मळवानी नथी. अपूर्व
अंर्तसंशोधनथी ते प्राप्त थाय छे. ते अंर्तसंशोधन कोईक महाभाग्य सद्गुरुअनुग्रहे
पामे छे. (४७)
(७३) निर्ग्रंथ भगवाने प्ररूपेला पवित्र धर्मने माटे जे जे उपमा आपीए ते न्यून ज छे,
आत्मा अनंतकाळथी रखडयो ते मात्र एना निरूपम धर्मना अभावे. (प२)
(७४) प्राणीमात्रनो रक्षक, बंधव अने हितकारी एवो कोई उपाय होय तो ते वीतरागनो धर्म
ज छे. (९०३)
(७प) परमात्माने ध्याववाथी परमात्मा थवाय छे. (६२)
(७६) ज्ञानीनी आज्ञानो आराधक अंतर्मुहूर्तमां पण केवळज्ञान पामे. (२००)
(७७) जेने आत्मस्वरूप प्राप्त छे, ते पुरुष विना बीजो कोई ते आत्मस्वरूप यथार्थ कहेवा
योग्य नथी; अने ते पुरुषथी आत्मा जाण्या विना बीजो कोई कल्याणनो उपाय नथी.
(४४९)
(७८) पोतानी मेळे अनादिथी भ्रांत एवा जीवने सद्गुरुना योग विना निजस्वरूपनुं भान
थवुं अशक््य छे, एमां संशय केम होय? (प७प)
(७९) ‘अपूर्व’ पोताथी पोताने प्राप्त थवुं दुर्लभ छे. जेनाथी प्राप्त थाय छे तेनुं स्वरूप
ओळखावुं दुर्लभ छे, अने जीवने भूलवणी पण ए ज छे. (८प)
(८०) स्वरूप सहजमां छे. ज्ञानीना चरणसेवन विना अनंतकाळ सुधी पण प्राप्त न थाय एवुं
विकट पण छे. (३१प)
(८१) जे विद्याथी उपशमगुण प्रगट्यो नहीं, विवेक आव्यो नहीं, के समाधि थई नहीं, ते
विद्याने विषे रूडा जीवे आग्रह करवा योग्य नथी.
(८२) उदय आवेलां कर्मोने भोगवतां नवां कर्म न बंधाय, ते माटे आत्माने सचेत राखवो ए
सत्पुरुषोनो महान बोध छे.
(८३) महापुरुषनो निरंतर अथवा विशेष समागम, वीतरागश्रुत चिंतवना, अने
गुणजिज्ञासा, ए दर्शनमोहनो अनुभाग घटवाना मुख्य हेतु छे; तेनाथी स्वरूपद्रष्टि
सहजमां परिणमे छे. (८६०)