Atmadharma magazine - Ank 290
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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१२ : आत्मधर्म : मागशर २४९४
नथी, तेमां तो रागनुं परिणमन छे. अंतरमां उपयोग वळ्‌यो ने निर्विकल्प अनुभव
थयो तेमां शुद्धवस्तुनुं परिणमन छे. वस्तुमां न जाय ने विकल्पमां ऊभो रहे तो
अनुभवनो स्वाद आवे नहीं, परमसुख थाय नहीं ने दुःख मटे नहीं. अनुभवीनां हृदय
बहु ऊंडा छे.
विकल्पोनी जाळने ‘स्वच्छा’ –पोतानी मेळे ऊभी थाय छे एम कह्युं छे, एटले
के वस्तुमांथी ते विकल्पो ऊठता नथी. वस्तुना वेदनमां विकल्पो नथी. विकल्पो वस्तुनुं
अवलंबन लेता नथी. वस्तुनुं अवलंबन ल्ये तो विकल्प तूटया वगर रहे नहीं. वस्तुने
जे अनुभवमां नथी लेतो ने नयपक्षना विचार कर्या करे छे तेने विकल्पनी जाळ
आपोआप ऊठ्या ज करे छे, ते विकल्पजाळने भेदीने अंतरना चैतन्यस्वरूपमां जे गुप्त
थया तेओ समरसमय एक स्वभावने अनुभवे छे, शुद्धसमयसारने ज चेते छे–
अनुभवे छे. अनुभवमां आवा चैतन्यप्रकाशनी स्फुरणा थतां वेंत ज विकल्पोनी
ईन्द्रजाळ गुम थई जाय छे, त्यां कोई विकल्पो ऊठता नथी.
चैतन्यनी आवी अनुभूति ए ज जैनधर्मनी मूळ वस्तु छे. आवी अनुभूतिमां
ज वीतरागी मोक्षमार्ग समाय छे; ने आवा अनुभवशील जीव परम सुखी छे.
अहा! ए द्रश्यो केवा हशे के ज्यारे कुंदकुंदस्वामी ने
अमृतचंद्रस्वामी जेवा धर्मधूरंधर दिगंबर सन्तो हाथमां कमंडल
ने मोरपिंछी लईने आ भरतभूमिमां विचरता हशे, ने आवो
‘आत्मवैभव’ जगतना जीवोने देखाडता हशे! ए
वीतरागमार्गी सन्तो जाणे सिद्धपदने भेगुं लईने फरता
हता...एमनी परिणति अंतर्मुख थईने क्षणेक्षणे सिद्धपदने
भेटती हती. –आवा मुनिओए तीर्थंकरदेवनुं शासन टकाव्युं छे.