Atmadharma magazine - Ank 290
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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१६ : आत्मधर्म : मागशर २४९४
जाण्यो; शुभरागनी क्रियाने जेणे पोतानी ज्ञानपर्यायनुं साधन मान्युं तेणे
आत्माने रागथी भिन्न न जाण्यो.
जडने अने विकारी रागने पोताना धर्मनुं साधन मानतां केटली गंभीर
मोटी भूल थाय छे तेनी अज्ञानीने खबर नथी. भाई, जडने अने विभावने
आत्मानुं साधन मानतां तारी मिथ्यामान्यतामां आखो आत्मा ज जडरूप ने
विभावरूप मनाई जाय छे, ने अनंत गुणना निर्मळस्वभावनो नकार थई जाय
छे, –ए केवी मोटी भूल छे! जो चेतनस्वभावने जडथी ने विभावथी भिन्न जाणे
तो ते जडने के विभावने पोतानुं साधन माने नहि, केमके भिन्न साधन होतुं नथी.
पोतानुं साधन पोताथी अभिन्न होय छे.
अहो, आ तो पोताना आत्मा माटे अंदरमां शांतिथी समजवानी वस्तु छे,
ने ए समजणनुं फळ सादि–अनंत आनंद छे. ए महा आनंदनी शी वात! ए
आनंद आत्मामांथी प्रगट्यो ते प्रगट्यो, हवे सदाकाळ आत्मा ते आनंदमां मग्न
रहेशे. दुःखनो अभाव थयो ते एवो अभाव थयो के फरी कदी दुःख नहि थाय. जेनी
समजणनुं आवुं महान फळ ते आत्मस्वभावना महिमानी शी वात! आवा
आत्माने अनुभवमां लेतां सम्यक्त्वादि अमृत प्रगटे छे ने अनादिनुं
मिथ्यात्वादिनुं झेर ऊतरी जाय छे.
सुखी थवुं होय तेने माटे आ एक ज रस्तो छे, बाकी तो बधा दुःखी थवाना
रस्ता छे. भगवान जे रस्ते मोक्ष पाम्या ते आ रस्तो छे. सन्तोए पोताना
अंतरमां जोयेलो आ मार्ग जगतने उपदेश्यो छे के हे जीवो! निःशंकपणे आ मार्गे
चाल्या आवो. भगवानना घरनी आ वात छे, भगवानना घरनो आ वैभव छे,
ने आत्माने भगवान बनाववानी आ रीत छे. वाह रे वाह! वीतरागी सन्तोए
अंदरमां पोतानां काम तो कर्या ने वाणीमां पण अलौकिक कथन आवी गयुं. –
जगतना एटला महा भाग्य छे.
(आत्मवैभवमांथी)