आत्माने रागथी भिन्न न जाण्यो.
आत्मानुं साधन मानतां तारी मिथ्यामान्यतामां आखो आत्मा ज जडरूप ने
विभावरूप मनाई जाय छे, ने अनंत गुणना निर्मळस्वभावनो नकार थई जाय
छे, –ए केवी मोटी भूल छे! जो चेतनस्वभावने जडथी ने विभावथी भिन्न जाणे
तो ते जडने के विभावने पोतानुं साधन माने नहि, केमके भिन्न साधन होतुं नथी.
पोतानुं साधन पोताथी अभिन्न होय छे.
आनंद आत्मामांथी प्रगट्यो ते प्रगट्यो, हवे सदाकाळ आत्मा ते आनंदमां मग्न
रहेशे. दुःखनो अभाव थयो ते एवो अभाव थयो के फरी कदी दुःख नहि थाय. जेनी
समजणनुं आवुं महान फळ ते आत्मस्वभावना महिमानी शी वात! आवा
आत्माने अनुभवमां लेतां सम्यक्त्वादि अमृत प्रगटे छे ने अनादिनुं
मिथ्यात्वादिनुं झेर ऊतरी जाय छे.
अंतरमां जोयेलो आ मार्ग जगतने उपदेश्यो छे के हे जीवो! निःशंकपणे आ मार्गे
चाल्या आवो. भगवानना घरनी आ वात छे, भगवानना घरनो आ वैभव छे,
ने आत्माने भगवान बनाववानी आ रीत छे. वाह रे वाह! वीतरागी सन्तोए
अंदरमां पोतानां काम तो कर्या ने वाणीमां पण अलौकिक कथन आवी गयुं. –
जगतना एटला महा भाग्य छे.