२६ : आत्मधर्म : मागशर २४९४
(श्रीमद् राजचंद्रजीनी जन्मशताब्दि निमित्ते
अपाती लेखमाळामां आ त्रीजो लेख छे. अनेक जिज्ञासुओ
तरफथी पसंद करायेला घणा वचनामृत आवेला, तेमांथी
संकलन करीने अहीं अपाय छे. गतांकमां जणावेल
जिज्ञासुओ उपरांत वांकानेरथी सभ्य नं. १७३२–१७३३,
राजकोटथी बेन कल्पनाकुमारी तथा मुंबईथी विजयाबेन–
वगेरे जिज्ञासुओ तरफथी पण वचनामृतो मळ्या छे; ते
बदल सौनो आभार. आ लेखमाळा आ वर्ष दरमियान चालु राखीशुं, ने आवेला
वचनामृतोनो तेमां उपयोग करीशुं.)
(२०१) सोळ वर्ष करतांय नानी उंमरमां श्रीमद्राजचंद्रजी लखे छे के–
‘रात्रि व्यतिक्रमी गई, प्रभात थयो; निद्राथी मुक्त थया, हवे भावनिद्रा टाळवानो प्रयत्न
करजो. ’
(२०२) सत्संगनी उपासना करवी होय तेणे संसारने उपासवानो आत्मभाव सर्वथा
त्यागवो. (४९१)
(२०३) एक समय पण केवळ असंगपणाथी रहेवुं ए त्रिलोकने वश करवा करतां पण
विकट कार्य छे; एवा असंगपणाथी त्रिकाळ जे रह्या छे एवा सत्पुरुषनां अंतःकरण, ते जोई
अमे परम आश्चर्य पामी नमीए छीए. (२१३)
(२०४) एक सत्पुरुषने राजी करवामां, तेनी सर्व ईच्छाने प्रशंसवामां, ते ज सत्य
मानवामां आखी जींदगी गई तो उत्कृष्टमां उत्कृष्ट पंदर भवे अवश्य मोक्ष जईश. (७६)
(२०प) मूर्तिमान मोक्ष ते सत्पुरुष छे. (२४९)
(२०६) सम्यक्त्व पाम्या छे एवा पुरुषनो निश्चय थये, अने जोग्यताना कारणे जीव
सम्यक्त्व पामे छे. (२४९)
(२०७) भक्तिनुं प्रयोजन स्व स्वरूप–प्राप्तिने अर्थे छे. (७१)
(२०८) आत्मस्वभावनी निर्मळता थवाने माटे मुमुक्षु जीवे बे साधन अवश्य करीने
सेववा योग्य छे–सत्श्रुत अने सत्समागम. (८२प)