२८ : आत्मधर्म : मागशर २४९४
आ वचन सर्व मुमुक्षुओए नित्य स्मरणमां राखवा योग्य छे.
जे वांचवाथी, समजवाथी, तथा विचारवाथी आत्मा विभावथी, विभावना कार्योथी, अने
विभावना परिणामथी उदास न थयो, विभावनो त्यागी न थयो, विभावना कार्योनो अने
विभावना फळनो त्यागी न थयो, तो ते वांचवुं, ते विचारवुं अने ते समजवुं अज्ञान
छे. (७४९)
(२२४) आत्माने अनंतभ्रमणामांथी स्वरूपमय पवित्र श्रेणीमां आणवो ए केवुं
निरूपम सुख छे, ते कह्युं कहेवातुं नथी, लख्युं लखातुं नथी, अने विचार्युं विचारातुं
नथी. (६२)
(२२प) जीव विभाव परिणाममां वर्ते ते वखते कर्म बांधे, अने स्वभावपरिणाममां वर्ते ते
वखते कर्म बांधे नहि, –एम संक्षेपमां परमार्थ कह्यो.
पण जीव समजे नहि, तेथी विस्तार करवो पड्यो, –जेमांथी मोटा शास्त्रो रचायां. (६८८)
(२२६) कर्ता–भोक्ता कर्मनो, विभाव वर्ते ज्यांय, वृत्ति वहे निजभावमां थयो अकर्ता
त्यांय. (आत्मसिद्धि)
(२२७) हे आर्य! द्रव्यानुयोगनुं फळ सर्व भावथी विराम पामवारूप संयम छे. ते आ
पुरुषनां वचन तारा अंतःकरणमां तुं कोई दिवस शिथिल करीश नहीं. (८६६)
(२२८) ‘सर्व भावथी औदासीन्य वृत्ति करी, मात्र देह ते संयमहेतु होय जो. ’
(२२९) सर्व जीव प्रत्ये, सर्व भाव प्रत्ये अखंड एकरस वीतरागदशा राखवी ए ज सर्व
ज्ञाननुं फळ छे. (७८१)
(२३०) ‘सर्वोत्कृष्ट शुद्धि त्यां सर्वोत्कृष्ट सिद्धि’ –हे आर्यजनो! आ परम वाक्यनो
आत्मापणे तमे अनुभव करो. (८३२)
(२३१) बीजा पदार्थोमां जीव जो निजबुद्धि करे, तो परिभ्रमणदशा पामे छे; अने निजने
विषे निजबुद्धि थाय तो परिभ्रमणदशा टळे छे. (प३९)
(२३२) श्री सद्गुरुए कह्यो छे एवा निर्ग्रंथमार्गनो सदाय आश्रय रहो. हुं देहादि स्वरूप
नथी, अने देह, स्त्री, पुत्रादि कोई पण मारां नथी, शुद्ध चैतन्यस्वरूप अविनाशी एवो हुं आत्मा
छुं–एम आत्मभावना करतां रागद्वेषनो क्षय थाय. (६९२)
(२३३) वीतराग पुरुषोनो धर्म जे देहादि संबंधीथी हर्षविषादवृत्ति दूर करी, आत्मा असंग
शुद्ध चैतन्यस्वरूप छे एवी वृत्तिनो निश्चय अने आश्रय ग्रहण करी, ते ज वृत्तिनुं बळ राखवुं.
(२३४) मंदवृत्ति थाय त्यां वीतराग पुरुषोनी दशानुं स्मरण करवुं. (८४३)
(२३प) परमयोगी एवा ऋषभदेवादि पुरुषो