मागशर २४९४ : आत्मधर्म : २९
पण जे देहने राखी शक्या नथी ते देहमां एक विशेषपणुं रह्युं छे, ते ए के तेनो संबंध वर्ते
त्यांसुधीमां जीवे असंगपणुं निर्मोहपणुं करी लई अबाध्य अनुभवस्वरूप एवुं निजस्वरूप
जाणी, बीजा सर्वभाव प्रत्येथी व्यावृत्त थवुं, –के जेथी फरी जन्ममरणनो फेरो न रहे. (७८०)
(२३६) देह ते आत्मा नथी, आत्मा ते देह नथी. घडानो जोनार जेम घडाथी भिन्न छे, तेम
देहनो जोनार–जाणनार एवो आत्मा ते देहथी भिन्न छे. (४२प)
(२३७) देहथी भिन्न, स्वपरप्रकाशक परम ज्योतिस्वरूप एवो आ आत्मा, तेमां निमग्न
थाओ.
हे आर्यजनो! अंतर्मुख थई, स्थिर थई, आत्मामां ज रहो, तो अनंत अपार आनंद
अनुभवाशे. (८३२)
(२३८) सर्वथी सर्व प्रकारे हुं भिन्न छुं, एक केवळ शुद्ध चैतन्यस्वरूप, परमोत्कृष्ट, अचिंत्य
सुखस्वरूप, मात्र एकान्त शुद्ध अनुभवरूप हुं छुं. त्यां विक्षेप शो?
विकल्प शो?
भय शो?
खेद शो?
बीजी अवस्था शी? (८३३)
(२३९) दुषमकाळमां एकावतारीपणुं
श्रीमद्राजचंद्रजी पचीसवर्षनी वये भवना अंतनो भणकार करतां लखे छे के “वर्तमानकाळ
दुषम कह्यो छे, छतां तेने विषे अनंतभव छेदी मात्र एक भव बाकी रहे एवुं एकावतारीपणुं
प्राप्त थाय एवुं पण छे. माटे विचारवान जीवे ते लक्ष राखी, उपर कह्या तेवा प्रवाहोमां न
पडतां, यथाशक्ति वैराग्यादि अवश्य आराधी, सद्गुरुनो योग प्राप्त करी, कषायादि दोष छेद
करवावाळो एवो, अने अज्ञानथी रहित थवानो सत्य मार्ग प्राप्त करवो. (४२२)
(२४०) (वर्ष २९ मुं पृ. प१६ अंक ७०६) (कारतक सुद सं. १९४९)
* पत्रनी शरूआतमां ‘सहजात्मस्वरूप’ ने याद कर्युं छे.
* घणे स्थळे विचारवान पुरुषोए एम कह्युं छे के ज्ञान थये काम, क्रोध, तृष्णादि भाव
निर्मूळ थाय. ते सत्य छे, तथापि ते वचनोनो एवो परमार्थ नथी के ज्ञान थया प्रथम ते मोळां
न पडे के ओछां न थाय. मूळ सहित छेद तो ज्ञाने करीने थाय. पण कषायादिनुं मोळापणुं के
ओछापणुं न थाय त्यांसुधी ज्ञान घणुं करीने उत्पन्न ज न थाय.
* ज्ञान प्राप्त थवामां विचार मुख्य साधन छे; अने ते विचारने वैराग्य तथा उपशम बे
मुख्य आधार छे, एम जाणी तेनो निरंतर लक्ष राखी तेवी परिणति करवी घटे.