Atmadharma magazine - Ank 290
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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३४ : आत्मधर्म : मागशर २४९४
प्र:– प्रागभाव, प्रध्वंसअभाव, अन्योन्यअभाव अने अत्यंतअभाव ए चार
अभाव न मानवामां आवे तो शो दोष आवे?
उ:– द्रव्य–गुण–पर्यायरूप वस्तुस्वरूपनी ओळखाणमां ए चारे अभावनो स्वीकार
आवी जाय छे. बाकी तो आ न्यायशास्त्रनो विषय होवाथी बहु विस्तार करवो पडे. टूंकमां
एटलुं के–जो प्राक्–अभाव न मानीए तो जीवनी पर्याय अनादिना मिथ्यात्वादि भावमां
ज वर्त्या करे. नवुं कार्य थाय ज नहि. अने जो प्रध्वंसअभाव न मानीए तो भविष्यना
केवळज्ञानादि अत्यारे ज होय. अत्यंत अभाव न मानीए तो बधी वस्तुओ एकबीजामां
भळी जाय, कोई वस्तुनुं स्वतंत्र अस्तित्व ज न रहे; अने पुद्गलमां अन्योन्यअभाव न
मानीए तो सोनुं के पथ्थर, साकर के झेर वगेरे पर्यायोमां कोई भेद ज न पडी शके.
प्र:– काळद्रव्य क्यां नथी?
उ:– आत्मामां अने अलोकमां.
प्र:– आंधळा अने बहेरा मनुष्यने केटला प्राण होय?
उ:– बधाय. (आ प्रश्नना जवाबमां अगाउ एकवार भूलथी एम लखाई गयेलुं के
परसेवो वगेरेमां असंज्ञी मनुष्य पण असंख्यात उत्पन्न थाय छे तेमने मनप्राण होता
नथी, –ए वात बराबर नथी. परसेवो वगेरेमां संमूर्छन मनुष्यजीवो उत्पन्न थाय छे ए
खरूं पण ते बधा संज्ञी ज होय छे. असंज्ञी जीवो फकत तिर्यंचगतिमां ज छे, बीजी कोई
गतिमां नथी.
प्र:– देवगतिना देवो केम दुःखी छे?
उ:– भाईश्री, देवगतिमांय असंख्याता सम्यग्द्रष्टिजीवो परम सुखी छे तेमने भूली
न जशो. तेमने कांई देवगतिनुं सुख नथी पण आत्माना सम्यक्त्वादिनुं सुख छे. एटले
देवगतिमां जेओ दुःखी छे तेओने पण पोताना मिथ्यात्वादि परिणामनुं ज दुःख छे.
(छहढाळा वगेरेमां देवीनो वियोग ईत्यादि प्रकारना दुःखोनुं जे वर्णन छे ते निमित्तथी
छे.) दरेक जीवने पोताना राग–द्वेष–मोहनुं ज दुःख छे; पछी ते नरकमां हो के स्वर्गमां.
प्र:– मोक्ष शुं छे? क््यां छे? केवी रीते प्राप्त थई शके?
उ:– मोक्ष एटले छूटकारो; आत्मानी अवस्थामां जे कर्मबंध अने अशुद्धता छे
तेनाथी छूटकारो थईने पूर्ण शुद्धदशानी प्राप्ति थाय तेनुं नाम मोक्ष; (मोक्ष कह्यो