एटलुं के–जो प्राक्–अभाव न मानीए तो जीवनी पर्याय अनादिना मिथ्यात्वादि भावमां
ज वर्त्या करे. नवुं कार्य थाय ज नहि. अने जो प्रध्वंसअभाव न मानीए तो भविष्यना
केवळज्ञानादि अत्यारे ज होय. अत्यंत अभाव न मानीए तो बधी वस्तुओ एकबीजामां
भळी जाय, कोई वस्तुनुं स्वतंत्र अस्तित्व ज न रहे; अने पुद्गलमां अन्योन्यअभाव न
मानीए तो सोनुं के पथ्थर, साकर के झेर वगेरे पर्यायोमां कोई भेद ज न पडी शके.
उ:– आत्मामां अने अलोकमां.
प्र:– आंधळा अने बहेरा मनुष्यने केटला प्राण होय?
उ:– बधाय. (आ प्रश्नना जवाबमां अगाउ एकवार भूलथी एम लखाई गयेलुं के
नथी, –ए वात बराबर नथी. परसेवो वगेरेमां संमूर्छन मनुष्यजीवो उत्पन्न थाय छे ए
खरूं पण ते बधा संज्ञी ज होय छे. असंज्ञी जीवो फकत तिर्यंचगतिमां ज छे, बीजी कोई
गतिमां नथी.
उ:– भाईश्री, देवगतिमांय असंख्याता सम्यग्द्रष्टिजीवो परम सुखी छे तेमने भूली
देवगतिमां जेओ दुःखी छे तेओने पण पोताना मिथ्यात्वादि परिणामनुं ज दुःख छे.
(छहढाळा वगेरेमां देवीनो वियोग ईत्यादि प्रकारना दुःखोनुं जे वर्णन छे ते निमित्तथी
छे.) दरेक जीवने पोताना राग–द्वेष–मोहनुं ज दुःख छे; पछी ते नरकमां हो के स्वर्गमां.
उ:– मोक्ष एटले छूटकारो; आत्मानी अवस्थामां जे कर्मबंध अने अशुद्धता छे