Atmadharma magazine - Ank 291
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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:१०: आत्मधर्म : पोष : २४९४
नहि. समभावनुं परिणमन ते धर्म छे, ते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे, तेमां विकल्पनो खखडाट
नथी.
बीजा विकल्पोमां रोकाया करे एने आत्मा क्यांथी समजाय? जे वस्तु समजवानी छे ते
वस्तुनी सन्मुख न जाय तो ते केम समजाय? वस्तुस्वभावनी सन्मुख उपयोग करे ने
विकल्पमांथी उपयोगने हठावे तो ज आत्मवस्तु समजाय ने अनुभवमां आवे.
जुओ तो खरा, आ समरसनी केवी सरस वात छे! आजे तो भगवान महावीर
परमात्माए मुनिदशा अंगीकार करी; शुद्धोपयोग प्रगट करीने मुनि थया; चारित्रदशा आजे थई.
अहा, ईन्द्रोए जेमना चारित्रनो महोत्सव कर्यो–एनी शी वात! त्रण ज्ञान तो जन्मथी ज लाव्या
हता, ने आजे (कारतक वद दशमे, शास्त्रीय भाषामां मागशर वद दशमे) चोथुं ज्ञान
आत्मध्यानमां प्रगट थयुं; शुद्धोपयोगरूप महा समरसभाव प्रगट थयो. सम्यग्दर्शनरूप समरस
तो पहेलेथी हतो ज, आजे तो चारित्ररूपी महान समरस प्रगट्यो.
विकल्पमां चैतन्यना समरसनो अनुभव नथी; ने समरसना अनुभवमां विकल्पनी
विषमता नथी. निर्विकल्प शांतरसना अनुभवपूर्वक सम्यग्दर्शन थाय छे. सम्यग्दर्शन थतां द्रव्य
ने पर्याय बंने समरसपणे अनुभवाय छे. जेवी वस्तु हती. तेवी पर्याय थईने अनुभवमां
आवी. शुद्ध परिणामद्वारा शुद्धद्रव्य नक्क्ी थाय छे. वीतरागमार्गनो आ रस छे. आमां पर्याये
‘वीतराग’ थईने वीतरागस्वरूपनां दर्शन कर्या. रागवडे वीतरागस्वरूप अनुभवमां न आवे.
द्रव्य ने पर्याय बंने समरस एकरूप थाय त्यारे शुद्ध वस्तु अनुभवमां आवे छे, तेमां विकल्पो
रहेता नथी.
विकल्पो तो ईन्द्रजाल जेवा छे. ‘हुं शुद्ध छुं’ एवा विकल्पमां शुद्धआत्मा प्रकाशतो नथी,
माटे विकल्पो तो ईन्द्रजाल जेवा छे; शुद्धचैतन्यनी अनुभूति थतां ज विकल्पनी ईन्द्रजाल अलोप
थई जाय छे; आत्मतत्त्व महा आनंदसहित स्फूरायमान थाय छे. ते आनंदमां बीजो कोई विकल्प
रहेतो नथी. आवुं जे चैतन्यतत्त्व ते हुं छुं–एम धर्मी अनुभवे छे.
शुद्ध स्वभावनी सन्मुख निशान लईने ज्यां ज्ञाननो टंकार थयो त्यां विकल्पजाळ क्यांय
भागी गई. चैतन्यसूर्यना तेज पासे विकल्परूप अंधकार टकतो नथी. सुखनो सूरज ऊग्यो त्यां
विकल्परूप दुःख केम रहे?