Atmadharma magazine - Ank 291
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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:१२: आत्मधर्म : पोष : २४९४
परम शांतिदातारी अध्यात्मभावना
(लेखांक – प८) (अंक २९० थी चालु)
भगवानश्री पूज्यपादस्वामीरचित समाधिशतक उपर पूज्यश्री
कानजीस्वामीनां अध्यात्मभावनाभरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
(सं. २०१२ श्रावण सुद शनिवार)
आत्मस्वरूपनी भावना करवाथी आत्मा पोते स्वत: परमात्मपदने पामे छे–एम हवे कहे छे–
इतीदं भावयेन्नित्यम् अवाचांगोचरं पदम् ।
स्वतएव तदाप्नोति यतो नावर्तते पुनः ।।९९।।
आगली गाथाओमां भिन्नउपासनानुं अने अभिन्न उपासनानुं स्वरूप कह्युं, ए बंनेमां
शुद्धात्मस्वरूपनी सन्मुखता छे. ए रीते जाणीने निरंतर ते शुद्ध आत्मानी भावना करवी जोईए;
तेनी भावनाथी वचनने अगोचर एवुं परमपद आत्मा स्वत: पामे छे–के जेमांथी कदी पण
पुनरागमन थतुं नथी.
सिद्ध भगवान तथा अर्हंत भगवानने जाणीने पहेलांं तो आत्माना वीतराग–विज्ञान
स्वभावनो निर्णय करवो जोईए, ने पछी तेनी भावनाथी तेमां एकाग्रतानो द्रढ अभ्यास करवो
जोईए. आ ज परमात्मा थवानो उपाय छे. कोई निमित्तनो आश्रय करीने के रागादिनो आश्रय
करीने सिद्ध के अर्हंत भगवंतो परमात्मदशाने नथी पाम्या, पण आत्मस्वरूपनो आश्रय करीने तेना
ध्यानथी ज परमात्मदशा पाम्या छे.
समयसार गा. ४१० मां कहे छे के– शरीराश्रित मोक्षमार्ग नथी; अर्हन्त भगवंतोए शरीरनुं
ममत्व छोडीने शुद्धात्माना आश्रये दर्शन–ज्ञान–चारित्रने ज मोक्षमार्गपणे उपास्या छे. भगवंतोए
स्वद्रव्याश्रित एवा सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रने ज मोक्षमार्ग कह्यो छे. माटे हे भव्य!
शुद्धज्ञानचेतनामय थई ने तुं तारा आत्माने ध्याव.
पोताना शुद्धआत्मानी भावनाना प्रभावथी ज आत्मा सर्वज्ञ थाय छे; अहो, सर्वज्ञपदनो
महिमा वचनथी अगोचर छे, तेनी प्राप्ति शुद्धात्मानी भावना वडे एटले के स्वानुभव वडे थाय छे.
तेथी श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के ‘अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो. ’ सर्वज्ञस्वभावथी भरेला
पोताना चैतन्यपदने छद्मस्थज्ञानी पण पोताना स्वानुभव वडे बराबर जाणी शके छे. एने जाणीने
एनी ज नित्य भावना करवा जेवी छे.
शुद्धस्वरूपनी भावना करनार, एटले के पर्यायने अंतर्मुख करीने स्वरूपमां लीन करनार