:१४: आत्मधर्म : पोष : २४९४
वळी बीजा कोई एम माने छे के आत्मा तो सर्वथा शुद्ध ज छे, पर्यायमांय अशुद्धता नथी.
आ रीते, देहथी भिन्न आत्मतत्त्वनी नित्यता, तेनी पर्यायमां अशुद्धता, तथा प्रयत्नद्वारा
देह ते आत्मा नथी एम भिन्नता जाणीने जेणे पोताना उपयोगने निज स्वरूपमां जोड्यो
अहीं तो कहे छे के देह आत्मा नथी,
‘तस्मात् न दुःखं योगिनां क्वचित’ एटले देहथी भिन्न चैतन्यतत्त्वमां ज्यां उपयोगने
आम देहथी भिन्न आत्मतत्त्वने जाणीने तारा निजस्वरूपमां उपयोगने जोड, –एवो
उपदेश छे. निजस्वरूपमां उपयोगने जोडवो ते ज मोक्षमार्ग छे, तेमां सुख छे, तेमां समाधि छे,
तेमां महा आनंद छे, तेमां किंचित् दुःख नथी. ।। १००।।