अत्यारे तो लोको बहारमां फरज–फरज करे छे,
देशनी फरज, कुटुंबनी फरज पुत्रनी फरज,
युवानोनी फरज–एम अनेक प्रकारे बहारनी
फरज मनावे छे ने मोटा मोटा भाषण करे छे,
–पण अहीं तो कहे छे के, भाई, ए बधी
बहारनी फरज ते तो वृथा व्यथा छे, –मफतनी
हेरानगती छे. आ आत्मानी समजण करवी ते
ज बधायनी खरी फरज छे, –ए फरज एक वार
बजावे तो मोक्ष मळे.
आत्मा कांई करी शकतो नथी, छतां फरज माने
ते तो मिथ्या–अभिमान छे, तारो स्व–देश तो
तारो आत्मा छे, अनंत गुणथी भरेलो तारो
असंख्यप्रदेशी आत्मा ज तारो ‘स्वदेश’ छे,
तेने ओळखीने तेनी सेवा (आराधना) कर, ते
तारी फरज छे; ए सिवाय बहारनो देश ते तो
‘पर–देश’ छे, तेमां तारी फरज नथी.
–तो कहे छे के ना; राग ते पण खरेखर फरज
नथी. राग करे छे पोते, पण ते फरज नथी–
कर्तव्य नथी, केम के तेमां पोतानुं हित नथी.
जेमां पोतानुं हित न होय तेने फरज केम
कहेवाय? अंतरमां चैतन्यमूर्ति आनंदथी
भरपूर पोताना आत्माने ओळखीने तेना
आश्रये सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र प्रगट
करवा, ने ए रीते आत्माने भवदुःखथी
छोडाववो ते दरेक जीवनी फरज छे.
देहमां तारी कंई फरज नथी,
ने देह तने शरण नथी.
राग ते तारी फरज नथी,
ने राग तने शरण नथी.
ते ज तारुं स्वरूप छे,
ने ते शक्तिनी संभाळ करीने तेमांथी