Atmadharma magazine - Ank 291
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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:१६: आत्मधर्म : पोष : २४९४
–माटे तेने ओळखीने तेनुं शरण कर, ने
तारी फरज बजाव. हुं परनुं करी दउं एवी
मान्यतामां जे रोकाय छे ते पोतानी वास्तविक
फरज चूकी जाय छे. माटे हे भव्य! परनुं
करवानी बुद्धि तुं छोड, ने आत्महितमां तारी
बुद्धि जोड. आत्मानी
संभाळ कर, तेनुं शरण कर, ने तेना शरणे
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र प्रगट करीने तारा
आत्माने भवभ्रमणथी छोडाव....ने ए रीते
तारी फरज बजाव. आ मनुष्यपणुं पामीने
आत्माने हवे भवदुःखथी छोडाववो ते ज, हे
जीव! तारी फरज छे, ने ते माटे तुं तारा
आत्माने ओळखवानो प्रयत्न कर.
(आत्मप्रसिद्धि)
आत्मानुं सुख
आत्माना स्वभावमां सहज सुख छे, बहारमां आनंद न
होवा छतां कल्पनाथी तेमां जे आनंद माने छे ते पोते आनंदस्वरूप छे.
पोतानो आनंद पोतामां भर्यो छे पण पोताना आनंदने भूल्यो एटले
तेनो आरोप बीजामां कर्यो के ‘आमां मारो आनंद छे. ’ –पण ए
आरोप मिथ्या छे–खोटो छे.
‘परमां मारुं सुख’ –एनो अर्थ ए थयो के आत्मा अहीं ने
तेनुं सुख क्यांक बीजे, एटले आत्मा अने सुख बंने जुदा ज ठर्या;
सुख ते आत्मानो स्वभाव न रह्यो! पण भाई, एवो (सुख
वगरनो) आत्मा न होय. आत्मा तो सुखस्वरूप छे. आत्मा आनंदथी
खाली नथी, आत्मा पोताना आनंदथी भरेलो छे. एनुं भान करतां
आनंदना स्वादनुं वेदन थाय छे.