Atmadharma magazine - Ank 291
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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:२०: आत्मधर्म : पोष : २४९४
ज्ञान थयुं त्यारे.......
एक तरफ पुण्य पापना समस्त परभावो, अने बीजी तरफ ज्ञानस्वभाव, ए बंनेनी
भिन्नता जाणीने भेदज्ञान कर्युं त्यां शुद्धस्वरूपने प्रकाशित करतुं ज्ञान प्रगट्युं; ते ज्ञान केवुं छे? के
अतीन्द्रिय सुखप्रवाहनी साथे परिणमी रह्युं छे. अहा, अतीन्द्रिय सुखनो प्रवाह ज्ञानीना
आत्मामां वहे छे.....ते आत्मा पोते अतीन्द्रिय सुखप्रवाहरूपे परिणमे छे.
जुओ, आ आत्मामां सुखनो प्रवाह प्रगट करवानी रीत! बाकी तो दुनिया आखी
दुःखमां ध्रुजी रही छे. हमणां ज धरतीकंपनो ध्रूजारो जोयोने! पण भाई, तारो आत्मा अध्रुव
एवा परभावोमां अनादिथी ध्रूजी रह्यो छे; तेने निजस्वरूपमां स्थिर कर. –स्वरूपमां स्थिरता वडे
ज निर्भयता ने शांति प्रगटे छे. धरतीकंपमां लोको केवा भयभीत ने अशांत थई गया? पण
अंदर मोहनी अस्थिरतामां ज्ञान आकुळताथी कंपी रह्युं छे ते दुःखनो भय अज्ञानीने देखातो
नथी; एटले ते भयथी ने अशांतिथी छूटवानो उपाय ते करतो नथी.
जीव ज्यारे धर्मी थाय छे त्यारे पोताना स्वभावना साधनथी ज तेने सुखनो अनुभव
थाय छे. ते सुखने माटे तेने शुभविकल्पोनी के पुण्यसामग्रीनी जरूर नथी. पुण्यने साधन
बनाव्या वगर पोते पोताना ज्ञानथी ज परम सुखरूपे परिणमे छे.
पुण्य–पापना कर्तृत्वमां रोकायेलो आत्मा निरंतर दुःखी हतो; हवे पुण्य–पापरहित
अतीन्द्रियज्ञानरूप शुद्धदशामां परिणमतो आत्मा निरंतर सुखी छे. तेना सुखमां रागनी अपेक्षा
नथी, अन्य वस्तुनी अपेक्षा नथी, कोई क्षेत्रनी के काळनी अपेक्षा नथी; निरपेक्ष स्वाधीनसुख छे.
आवा स्वाधीन ज्ञान–सुखरूपे परिणमतो ज्ञानी रागादि क्रियाने के देहनी क्रियाने करतो
नथी; ते हो भले, पण तेनाथी भिन्न ज्ञानरूपे परिणमतो ज्ञानी तेने करतो नथी, तेने ते मोक्षनुं
साधन समजतो नथी. आवुं ज्ञान ते ज्ञानीनुं कार्य छे, ते ज्ञानीनुं चिह्न छे. ते ज्ञानी पोताना
ज्ञानस्वरूपमां सदा अकंप वर्ते छे.
जागृत थईने आत्माने जगाड्यो त्यां जुदी जातनी दशा थई जाय. तेने