जे जाणतो अर्हंतने गुण द्रव्य ने पर्ययपणे,
ते जीव जाणे आत्मने, तसु मोह पामे लय खरे. ८०
अरिहंतनुं स्वरूप जाणवानी वात करी छे; अरिहंतनी अहीं ज साक्षात् हाजरी होय तो ज तेमनुं
स्वरूप जाणी शकाय, ने दूर होय तो न जाणी शकाय–एवो कोई प्रतिबंध नथी. अमुक क्षेत्रमां
अत्यारे अर्हंत नथी पण तेमनुं होवापणुं अन्यत्र–महाविदेहक्षेत्र वगेरेमां–तो अत्यारे पण छे.
अरिहंतप्रभु सामे साक्षात् बिराजता होय त्यारे पण तेमनुं स्वरूप ज्ञानद्वारा ज नक्क्ी थाय छे.
त्यां अरिहंत तो आत्मा ज छे, तेमना द्रव्य–गुण के पर्याय नजरे तो देखाता नथी छतां ज्ञानद्वारा
तेमना स्वरूपनो निर्णय थई शके छे, तो पछी तेओ क्षेत्रे जराक दूर होय त््यारे पण ज्ञानद्वारा
तेमनो निर्णय अवश्य थई शके छे. साक्षात् बिराजता होय त्यारे पण आंखथी (ईन्द्रियज्ञानथी)
तो अरिहंतनुं शरीर देखाय छे, शुं शरीर ते अरिहंतना द्रव्य–गुण–पर्याय छे? के शुं दिव्यवाणी ते
अरिहंतना द्रव्य–गुण–पर्याय छे? ना, ए बधुं तो आत्माथी जुदुं छे. चैतन्यस्वरूप आत्मा द्रव्य,
तेना ज्ञान–दर्शनादि गुणो अने तेनी केवळज्ञानादि पर्याय ते अरिहंत छे, ते द्रव्य–गुण–पर्यायने
यथार्थपणे ओळखे तो अरिहंतनुं स्वरूप जाण्युं कहेवाय. साक्षात् अरिहंत