अरिहंतनी परमार्थस्तुति करी नथी.
बिराजता होय परंतु ते वखते जो ज्ञान वडे पोते तेमना स्वरूपनो निर्णय न करे तो ते जीवने
आत्मा जणाय नहि अने तेना माटे तो अरिहंत घणा दूर छे, अने अत्यारे क्षेत्रथी नजीक
अरिहंतप्रभु न होवा छतां पण जो पोताना ज्ञानवडे अत्यारे पण अरिहंतप्रभुना स्वरूपनो
निर्णय करे तो आत्मानी ओळखाण थाय अने तेना माटे अरिहंतप्रभु नजीक हाजराहजुर छे,
एना अंतरमां ज अरिहंतदेव बिराजे छे. क्षेत्र अपेक्षाए वात नथी पण भाव अपेक्षाए वात छे.
साची समजणनो संबंध तो भाव साथे छे.
स्वरूपनो खरो निर्णय पोताना ज्ञानमां न कर्यो ते जीवोना ज्ञानमां तो ते वखते पण अरिहंतनी
हाजरी नथी, अने भरतक्षेत्रमां पंचमकाळे साक्षात् अरिहंतनी गेरहाजरीमां पण जे आत्माओए
द्रव्य–गुण–पर्यायपणे अरिहंतना स्वरूपनो खरो निर्णय पोताना ज्ञानमां कर्यो तेओने माटे तो
अरिहंतप्रभु साक्षात् मोजूद बिराजे छे.
माटे तो साक्षात् अरिहंतप्रभु पण धर्मना निमित्त कहेवाया नहीं. अत्यारे पण जे अरिहंतनो
निर्णय करीने आत्मस्वरूप समजे तेने ज्ञानमां अरिहंतप्रभु निमित्त कहेवाय छे.
भावभेद तूटी जशे, ने क्षेत्रभेद पण नडशे नहि. जेनी द्रष्टि उपादान उपर छे ते पोताना ज्ञानना
जोरे अरिहंतनो निर्णय करीने क्षेत्रभेद काढी नाखे छे. अरिहंत तो निमित्त छे, अंतर्मुख थईने ते
अरिहंतनो निर्णय करनार