Atmadharma magazine - Ank 291
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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:२४: आत्मधर्म : पोष : २४९४
ज्ञाननो महिमा छे. मूळ सूत्रमां “जो जाणदि” एम कह्युं छे एटले जाणनार ज्ञान ते मोहक्षयनुं
कारण छे. परंतु अरिहंत तो जुदा छे, तेओ आ आत्मानो मोहक्षय करता नथी.
समवसरणमां बेसनार जीव पण अरिहंतथी तो दूरक्षेत्रे ज बेसे छे एटले क्षेत्रथी तो तेने
पण दूर छे अने अहीं पण क्षेत्रथी जरा वधारे दूर छे, परंतु क्षेत्रथी फेर पड्यो एटले शुं? जेणे
भावमां अरिहंतने नजीक कर्या तेने सदाय नजीक बिराजे छे अने जेणे भावमां अरिहंतने दूर
कर्या तेने दूर छे. क्षेत्रे नजीक हो के न हो तेथी शुं? भाव साथे मेळ करीने नजीकपणुं करवुं छे.
अहो! अरिहंतना विरह भूलावी दीधा; कोण कहे छे के अत्यारे अरिहंतप्रभु नथी?
आ पंचमआराना मुनिनुं कथन छे, पंचमकाळे आ थई शके छे. जे कोई जीव पोताना
ज्ञान वडे अरिहंतना द्रव्य–गुण–पर्यायने जाणे तेनो दर्शनमोह नाश थाय छे.
(ि) त्त्र् (ि)
सरदारशहेरनिवासी सद्धर्मप्रेमी भाईश्री दीपचंदजी शेठिया तथा तेमना
परिवार आदि तरफथी जयपुर तत्त्वचर्चा भाग १ अने २ विना मूल्ये, विनंति–पत्र
मळ्‌येथी भेटस्वरूपे भारतभरना श्री दिगंबर जैन मंदिर, श्री दिगंबर जैन मुमुक्षु
मंडळो अथवा दिगंबर जैन संस्थाने नीचेना सरनामे पत्र लखवाथी मळी शकशे.
पोस्टेज–पेकींगना खर्चनुं वी. पी. रूा. २–८० नुं करवामां आवशे. दरेकने मात्र एक
ज सेट (भाग–१ तथा भाग–२) आपवामां आवशे. स्टोकमां हशे त्यां सुधी ज
आपवामां आवशे.
पत्रव्यवहारनुं सरनामुं–
श्री दि. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट.
सोनगढ (सौराष्ट्र)