Atmadharma magazine - Ank 291
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४९४ आत्मधर्म : १:
वार्षिक लवाजम वीर सं. २४९४
चार रूपिया पोष
वर्ष: २प: अंक ३
१०८ मणका पूरा करती आपणी शास्त्रमाळा
जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट (सोनगढ) द्वारा साहित्यप्रकाशननुं
विशाळकार्य अनेक वर्षोथी चालु छे; तेमां आ मासमां ‘भगवानश्री
कुंदकुंद–कहान जैनशास्त्रमाळा’ ना प्रकाशनोमां “आत्मवैभव” नामना
१०८ नंबरना प्रकाशन द्वारा आ शास्त्रमाळाना १०८ मणका पूरा थाय
छे. गुरुदेवना प्रतापे जिज्ञासुओने आत्माभिमुख करतुं जे विपुल
वीतरागी साहित्य आजे प्रकाशमां आवी रह्युं छे ते महान प्रभावनानुं
कारण छे. एक तरफ आत्मधर्मनुं नियमित प्रकाशन, अने बीजी तरफ
विविध प्रकारना साहित्यनुं गुजराती–हिंदीमां प्रकाशन, एना द्वारा
भारतभरमां प्रभावना विस्तरी रही छे. भारतमां ज नहि परदेशमां पण
हजारो पुस्तको अनेक जिज्ञासुओ उत्साहथी मंगावे छे ने वांचे छे.
शास्त्रमाळाना १०८ मणकानी पूर्णताना प्रसंगे तेमां प्रकाशित पुस्तकोनो
परिचय अहीं टूंकमां क्रमेक्रमे आपीशुं. (सं.)
प्रारंभमां, रत्नत्रयरूप आभरणथी भूषित एवी जिनवाणी देवीने नमस्कार करीए
छीए. ए जिनवाणीना दातार वीतरागी सन्तोने नमस्कार करीए छीए.
शास्त्रपरिचयनो प्रारंभ करतां पहेलांं एक वात सर्वे जिज्ञासुओए लक्षमां राखवा जेवी
छे के प्रत्यक्ष ज्ञानी–सन्तोनो परिचय ने तेमनी पासेथी सीधुं श्रवण ए मुख्य वस्तु छे;
ज्ञानी पासेथी शास्त्रना रहस्य समजवानी चावी मेळव्या पछी जे शास्त्रस्वाध्यायादि
करवामां आवे ते विशेष लाभनुं कारण थाय छे. आवा लक्षपूर्वक जिज्ञासु जीवोए दररोज
शांतचित्ते अवश्य शास्त्रस्वाध्याय करवी जोईए.