Atmadharma magazine - Ank 292
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: महा : र४९४ आत्मधर्म : ७ :
ज्ञानीनी ज्ञान–वैराग्यशक्ति
(–जे शक्तिना बळथी कर्मनी निर्जरा थती जाय छे)
(कलशटीका: निर्जराअधिकार उपरना प्रवचनमांथी)

रागथी जुदा शुद्धात्मस्वरूपना अनुभवरूप भेदज्ञानवडे जेणे संवर कर्यो छे, ते उग्र
ज्ञानज्योति वडे पूर्वना कर्मोने निर्जरी नांखे छे. संवर–निर्जरानी दशा प्राप्त करीने धर्मीजीव
आनंदरूप थाय छे–मोक्षने साधे छे. सम्यग्दर्शन थतां ज आत्मामां आनंद थयो ने संवर–निर्जरा
शरू थया.
अहा, चैतन्यना आनंदनो स्वाद चाख्यो त्यां हवे धर्मीजीवने रागादिना आकुळस्वाद साथे
जरापण एकता थती नथी, रागादि वडे तेनुं ज्ञान जरापण मुर्छातुं नथी; एटले रागादि साथे
उपयोगनी एकतारूप आस्रव तेने थतो नथी. ज्ञानीनी परिणति ज्ञान–वैराग्यमय थई गई छे,
तेमां हवे बंधन केम थाय? अहो! ते ज्ञानवैराग्यनुं कोई अद्भुत माहात्म्य छे के ज्ञानीने बंधन
थतुं नथी. उपयोगमां एकतारूप ज्ञान, अने रागथी भिन्नतारूप वैराग्य–आवा ज्ञान–
वैराग्यसहित शुद्धात्मानो अनुभव होय छे. ते पर्यायमां रागनो के कर्मनो प्रवेश थतो नथी.
कर्मनो उदय आवीने निर्जरी जाय छे पण बंधनुं कारण थतो नथी–एवुं अनुभवनुं सामर्थ्य छे.
अंतरनी अनुभवदशामां तो ज्ञानी रागने के तेना फळने भोगवतो ज नथी, तेनाथी
विरक्त ज रहे छे. ते बाह्यसामग्री वच्चे देखाय, राग पण थतो होय, पण अंदरनी ज्ञानदशामां
धर्मीने ते राग साथे के सामग्री साथे जराय लागतुं–वळगतुं नथी, तेनाथी जुदी ज ज्ञानपरिणति
वर्ते छे. ते परिणति कर्मनो अभाव करी नांखे छे.
जेम अलिप्त स्वभाववाळुं कमळ कादवथी लेपातुं नथी, तेम रागथी अलिप्त एवो धर्मीनो
उपयोग छे ते कर्मथी लेपातो नथी. उपयोगमां रागनी चिकास नथी तेथी संयोग वच्चे पण तेने
बंधन थतुं नथी, ते वखतेय तेनो उपयोग अलिप्त वर्ते छे.
जेम मंत्रनो जाणकार होय ते सर्पने करडावे छतां मंत्रबळथी सर्पनुं झेर तेने चडतुं नथी,
तेम धर्मी पासे भेदज्ञानरूपी अमोघ मंत्र एवो छे के कर्मफळना भोगवटारूपी विषयोनुं झेर तेने
चडतुं नथी; केमके अंदरमां शुद्धचिद्रूपना अनुभवरूपी मंत्र तेने मोजूद छे; ते मंत्र विषयोमां
सुखबुद्धिरूपी झेरने (मिथ्यात्वने) जरापण चडवा देतो नथी.