Atmadharma magazine - Ank 292
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म : महा : र४९४
जेम जीभ एवी लूखी छे के चीकास तेने चोंटती नथी; तेम शुद्धचैतन्यरसनो स्वाद
चाखनारी भेदज्ञानरूपी जीभ एवी लूखी छे (रागनी चीकास वगरनी, वीतराग छे) के रागनी
चीकास तेने चोंटती नथी, रागथी ते ज्ञान जुदुं ने जुदुं अलिप्त ज रहे छे.
अने जेम सोनाने काट लागतो नथी तेम भेदज्ञानरूपी शुद्ध सुवर्णने विकाररूपी काट
लागतो नथी. शुभाशुभराग वखतेय ज्ञानीनुं ज्ञान ते–रूपे थई जतुं नथी, ते कटातुं नथी पण
शुद्धज्ञानपणे ज रहे छे.
आ रीते (उपरोक्त चार द्रष्टान्ते) सम्यग्द्रष्टिनी परिणति ज्ञान–वैराग्यरूप छे. ज्ञान–
वैराग्यनी तेनी कोई अमोघ शक्ति छे के जे तेने कर्मनुं बंधन थवा देती नथी पण उदयागत
कर्मोने खेरवी नांखे छे. आ रीते भेदज्ञानना बळवडे सम्यग्द्रष्टिने निर्जरा थया ज करे छे.
चैतन्यना आनंदरसना स्वाद पासे ज्ञानीने विषयोनो रस केम होय? चैतन्यना परम
प्रेम पासे शुभरागनो स्वाद पण ज्ञानीने नीरस लागे छे. जेणे चैतन्यना सुखनो स्वाद नथी
चाख्यो तेने ज शुभरागनो रस लागे छे. शुभराग अने तेनुं फळ ए जीवनुं स्वरूप ज नथी;–
अशुभनी तो वात ज शी? नरकनी घोर प्रतिकूळताना वेदन वच्चे पण सम्यग्द्रष्टि जीव तेनाथी
भिन्न पोताना चैतन्यसुखने वेदे छे. रागना वेदनमां तेना उपयोगनी एकता थती नथी,
चैतन्यसुखना वेदनमां ज तेना उपयोगनी एकता छे, तेमां ज तेनी प्रीति छे. चैतन्यसुख सिवाय
जगतमां बीजे क््यांय धर्मीने प्रीति नथी. अनुकूळ–प्रतिकूळताथी पार (शुभ–अशुभथी पार)
तेनी चैतन्यपरिणति (कमळनी जेम, मंत्रवादीनी जेम, लूखी जीभनी जेम, अने सुवर्णनी जेम–
ए चार द्रष्टान्ते) परभावोथी तद्न अलिप्त छे, तेथी ते कर्मथी लेपाती नथी पण मुक्त ज रहे छे.
ज्ञान–वैराग्यसम्पन्न सम्यग्द्रष्टि जीवने निर्जरा थाय छे. तेनी ज्ञान–वैराग्यशक्ति केवी
छे? ते बतावे छे: प्रथम तो ज्ञान एटले शुद्धस्वरूपना अनुभवरूप जाणपणुं; अने वैराग्य एटले
परद्रव्य अने परभावोथी भिन्नतारूप भेदज्ञान; एवुं भेदज्ञान थतां द्रव्यकर्म–भावकर्म–नोकर्म
तरफथी विरक्त थईने ज्ञानपरिणति पोताना शुद्धस्वरूप तरफ झूकी छे. –आवी ज्ञान–
वैराग्यशक्ति सम्यग्द्रष्टिने नियमथी होय छे. आवी ज्ञान–वैराग्यरूप परिणतिमां कर्मना फळनो
भोगवटो होतो नथी एटले ते फळ दीधा वगर ज निर्जरी जाय छे.
धर्मी शुद्धस्वरूपने स्वज्ञेयपणे जाणे छे; रागादिने भिन्न परज्ञेयपणे जाणे छे; एटले
तेनाथी ते विरक्त छे. आवी सहज ज्ञान–वैराग्य परिणति ते धर्मीनुं साचुं