चीकास तेने चोंटती नथी, रागथी ते ज्ञान जुदुं ने जुदुं अलिप्त ज रहे छे.
शुद्धज्ञानपणे ज रहे छे.
कर्मोने खेरवी नांखे छे. आ रीते भेदज्ञानना बळवडे सम्यग्द्रष्टिने निर्जरा थया ज करे छे.
चाख्यो तेने ज शुभरागनो रस लागे छे. शुभराग अने तेनुं फळ ए जीवनुं स्वरूप ज नथी;–
अशुभनी तो वात ज शी? नरकनी घोर प्रतिकूळताना वेदन वच्चे पण सम्यग्द्रष्टि जीव तेनाथी
भिन्न पोताना चैतन्यसुखने वेदे छे. रागना वेदनमां तेना उपयोगनी एकता थती नथी,
चैतन्यसुखना वेदनमां ज तेना उपयोगनी एकता छे, तेमां ज तेनी प्रीति छे. चैतन्यसुख सिवाय
जगतमां बीजे क््यांय धर्मीने प्रीति नथी. अनुकूळ–प्रतिकूळताथी पार (शुभ–अशुभथी पार)
तेनी चैतन्यपरिणति (कमळनी जेम, मंत्रवादीनी जेम, लूखी जीभनी जेम, अने सुवर्णनी जेम–
ए चार द्रष्टान्ते) परभावोथी तद्न अलिप्त छे, तेथी ते कर्मथी लेपाती नथी पण मुक्त ज रहे छे.
परद्रव्य अने परभावोथी भिन्नतारूप भेदज्ञान; एवुं भेदज्ञान थतां द्रव्यकर्म–भावकर्म–नोकर्म
तरफथी विरक्त थईने ज्ञानपरिणति पोताना शुद्धस्वरूप तरफ झूकी छे. –आवी ज्ञान–
वैराग्यशक्ति सम्यग्द्रष्टिने नियमथी होय छे. आवी ज्ञान–वैराग्यरूप परिणतिमां कर्मना फळनो
भोगवटो होतो नथी एटले ते फळ दीधा वगर ज निर्जरी जाय छे.