ते तो रागमां ज लीन छे. राग अने ज्ञाननी भिन्नताना भेदज्ञानवडे ज साचो वैराग्य होय छे.
ने आवा वैराग्यवाळो जीव ज कर्मोथी छूटे छे.
जीवने वैरागी कहेता नथी, ते तो रागी ज छे, रागमां ज लीन छे. अने जेणे शुद्धस्वरूपना
अनुभवपूर्वक रागथी पोतानी भिन्नता जाणी छे. एवा सम्यग्द्रष्टि जीव, बहारथी गृहवासमां
देखाय, राग पण थतो देखाय छतां, नियमथी वैरागी छे, रागमां तेनी परिणति मग्न नथी, तेनी
ज्ञानपरिणति रागथी जुदी जे जुदी ज वर्ते छे; रागना एक अंशने पण ज्ञानमां भेळवता नथी.
आ रीते तेनुं ज्ञान रागथी विरमेलुुंं छे. एटले धर्मीने ज्ञान अने वैराग्य बंने साथे ने साथे वर्ती
रह्या छे.
तेनाथी तो भिन्न रहे छे, विरक्त रहे छे, तेमां एकरूप कदी थता नथी. –आवा ज्ञान–वैराग्यना
बळथी धर्मी जीवने निर्जरा थाय छे; अशुद्धपरिणति छूटती जाय छे ने शुद्धता थती जाय छे.
सम्यग्द्रष्टि नियमथी ज्ञान–वैराग्य सम्पन्न होय छे. –ते शुं करे छे? शुद्धस्वरूपनो लाभ अने
परभावनो त्याग–एनो निरंतर अभ्यास भेदज्ञान वडे करे छे. शुद्ध स्वरूपना अनुभवनो
निरंतर अभ्यास करे छे. समयसारनाटकमां कहे छे के–
जासु प्रभाव लखे निज लक्षण जीव अजीवदशा निरवारे।।
आतमको अनुभव करिके ह्वै थिर आप तरे अर ओरनि तारे।
साधी सुद्रव्य लहे शिवशर्म सु कर्मउपाधि व्यथा वमि डारे।। ७।।
परद्रव्यथी सर्वथा भिन्न एवी शुद्ध स्ववस्तुनो लाभ थयो. ते स्ववस्तुने