Atmadharma magazine - Ank 292
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : महा : र४९४
क््यांथी लावशे? जेणे जींदगीमां कदी बंदुक पकडतां पण आवडी नथी, निशान लेतां आवड्युं
नथी, ते लडाईमां दुश्मन सामे केवी रीते ऊभो रहेशे? जीवनमां जेणे अभ्यास कर्यो हशे तेने
खरे टाणे काम आवशे. माटे निरंतर प्रमाद छोडी द्रढ वैराग्यपूर्वक आत्मानी भावना भावजे.
जेम दीक्षाकाळ वखते संसार–भोगोने असार जाणीने अत्यंत वैराग्य उपजे छे, तेम ज
कोई तीव्ररोग, के मृत्युना संभवनो प्रसंग–एवा काळे जागेली उत्तम भावनाओने याद करीने
विशुद्धभावथी उत्तम बोधनुं सेवन करजे...एवी द्रढ भावना करजे के केवळज्ञान सुधी अखंड रहे.
अरे जीव! भेदज्ञान करीने तारा ज्ञानने अंतरमां ढाळजे! वारंवार ज्ञानने अंतरमां एकाग्र
करवानो अभ्यास करजे..रोमेरोमे एटले के आत्मामां प्रदेशे प्रदेशे–ज्ञाननुं परिणमन थई जाय–
एवो द्रढ अभ्यास करजे. विषयो तरफनी वृत्ति तोडीने चैतन्यनो रस एवो वधारजे के स्वप्नेय
के प्राण जाय एवा प्रसंगे पण तेमां शिथिलता न थाय, ने धारावाही ज्ञान टकी रहे. –आम द्रढ
ज्ञानभावनो उपदेश छे.
।। १०र।।
आपणी आ वैराग्यरसभरपूर सुगम लेखमाळा
आवता अंकमां समाप्त थशे.
जेमना असंख्य प्रदेशे अनंत चैतन्यसूर्य खील्या एवा वीतराग
परमेश्वर अरिहंतदेवे आत्मानुं स्वरूप केवुं जाण्युं छे एनी आ वात छे.
वीतरागमार्गी सन्तोए पोताना अनुभवमां लईने ए वात प्रसिद्ध करी छे.
हित करवा माटे पोतानुं द्रव्य केवुं? गुण केवा? ने तेना आश्रये पर्याय प्रगटे
छे ते केवी छे–ते जाणवुं जोईए.
सन्तो तने तारो आत्मवैभव बतावे छे.