Atmadharma magazine - Ank 292
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म : महा : र४९४
मात्र आत्माने अमूर्तपणे ज अनुभवे छे. आत्माने ज्ञानमात्र कहेवो ने वळी मूर्त कहेवो–ए
केम बने? ‘ज्ञान’ अने ‘मूर्तपणुं’ ए बंने एकबीजाना विरोधी छे, एक ज वस्तुमां ए बंने
साथे रही शकता नथी; अनंतशक्तिस्वरूप ज्ञानमात्र आत्मामां देहनो तथा कर्मनो अभाव ज
छे, एटले ते अमूर्त ज छे. जो अत्यारे मूर्त होय तो सिद्धमां ते अमूर्त क्यांथी थई जाय?
संसारमां जीवने मूर्त कह्यो छे ते उपचारथी ज कह्यो छे, खरेखर मूर्त नथी. अत्यारे
साधकदशा वखते ज धर्मीने पोतानो आत्मा कर्मबंधथी भिन्न अमूर्त ज्ञानमात्रपणे प्रगट
अनुभवाय छे. कांई सिद्धदशा थाय त्यारनी ज आ वात नथी, पण आत्मा ज्ञानमात्रपणे
ज्यारे ज्यारे लक्षित थाय छे त्यारे त्यारे ते अमूर्तस्वभावे लक्षित थाय छे. ‘ज्ञानमात्र’ मां
मूर्तनो अभाव छे.
ज्ञानलक्षणे लक्षित आत्मा रागवाळोय नथी, तो कर्मना संबंधवाळो छे ए वात
क््यांथी आवी? अत्यारे ज शुद्धनयथी जोतां आत्मा कर्मना संबंध वगरनो अबद्ध–अस्पृस्ष्ट
देखाय छे. जेमां रागनोय संबंध नथी तेमां वळी मूर्तपणुं केवुं? भाई, तारो आत्मा अत्यारे
आवो ज छे, तेने तुं धीरो थईने (आकुळता वगर) तारा अंतरमां देख. ज्ञानस्वरूप आत्मा
केवो छे तेनी आ वात छे. जीव ज्यारे राग अने कर्मना संबंध वगरना पोताना स्वभावमां
द्रष्टि करीने परिणम्यो त्यारे आत्मा अमूर्तपणे तेने अनुभवमां आव्यो. आ रीते वर्तमानमां
ज आवो अमूर्त आत्मा धर्मीना अनुभवमां व्यक्त थाय छे–तेनी आ वात छे. अंतर्मुख
थईने आवा आत्माने अनुभवे त्यारे ज खरेखर जैनशासनने जाण्युुं कहेवाय, ने त्यारे ज
अमूर्त आत्माने जाण्यो कहेवाय. देहनी क्रिया हुं करुं के देहनी क्रियाथी आत्माने लाभ थाय–
एम माननारे आत्माने खरेखर अमूर्त जाण्यो नथी, तेणे तो आत्माने मूर्त साथे एकमेक
मान्यो छे. आत्माने अने अनात्माने, एटले के जीवने अने शरीरने एकपणुं कदी थई शकतुं
नथी.
कर्मना संबंध वगरना आत्मस्वभावने जे देखतो नथी–अनुभवमां लेतो नथी, ने
मात्र कर्मना संबंधवाळा अशुद्धभावपणे ज आत्माने अनुभवे छे तेने शुद्ध आत्मानी खबर
नथी, एटले के साचा आत्मानी तेने खबर नथी पण अनात्माने ते आत्मा माने छे.
आत्माने शुद्धपणे देख्या वगर सम्यग्दर्शन थाय नहीं. आ वात समयसारनी १४–१प
गाथाओमां अद्भूत रीते समजावी छे. भाई,