पोताना वहाला पुत्रने बधो वारसो बतावे, तेम सर्वज्ञतीर्थंकरदेव आपणा धर्मपिता छे;
गौतमगणधरने महापुराणमां जिनसेनस्वामीए ‘सर्वज्ञपुत्र’ कह्या छे, सम्यग्द्रष्टिने पण
जिनेश्वरना नन्दन कह्या छे; ए रीते भगवान सर्वज्ञदेव धर्मपिता छे; तेमणे चैतन्यना
अचिंत्यवैभवनो वारसो बताव्यो छे. अरे जीव! भगवान तने अपार चैतन्यवैभव आपे छे, ते
प्राप्त करीने उल्लास लाव...उल्लासथी तारा आत्मवैभवने अनुभवमां ले.
केम होय? जेणे चैतन्यना वीतरागी वैभवने जाण्यो नथी. तेने ज रागनो ने पुण्यनो महिमा
लागे छे. जो चैतन्यना वीतरागी वैभवने जाणे तो ए पुण्यनो मोह ऊडी जाय. अरे, चैतन्य–
अमृतनो डुंगर आत्मा, एनी सामे आ अचेतनना ढगलानी शी किंमत? सम्यग्द्रष्टि पोताना
आत्माने एनाथी भिन्नपणे अनुभवे छे; ते संयोगमां स्वप्नेय सुख मानता नथी. बहारमां तो
क््यांय आत्मानुं सुख छे ज नहि, बहारना पदार्थोने तो आत्मा स्पर्शतोय नथी, एनाथी जुदो ज
रहे छे; अंदरना विकल्पमांय सुख नथी; सुख तो आत्माना सहज स्वभावमां छे, ते स्वभावने ज
ज्ञानी स्पर्शे छे, –तेने ज तन्मयपणे अनुभवे छे; आ रीते पोताना आत्माने स्वमां एकत्वरूप ने
परथी विभक्त कर्यो छे. आवो एकत्व–विभक्त आत्मा ज शोभे छे, तेने ज ‘शुद्ध’ कहीए छीए.
आचार्यदेव कहे छे के–