: महा : र४९४ आत्मधर्म : ३१ :
ते रूपी अचेतन अजीव छे, ने आंखथी देखाय छे. जीव अरूपी छे, ते आंखथी ज देखाय. कह्युं छे के–
‘गुरुता–लघुता गमनता ए अजीवके खेल’
एटले गमन–हालवुं चालवुं ते अजीवनो खेल छे (एटले के अजीवनो स्वभाव छे) –
जीवनो नहि.
प्रश्न:– आत्मधर्म वांची खूब आनंद थाय छे. हमणां तो गुरुदेवना प्रवचनमां अनुभवनी
ज वातो बहु सरस आवे छे. मारे पण एवो आत्मअनुभव करवो छे, तो कांईक उपाय
बतावशो? ज्ञान अने राग जुदा मानवाथी अनुभव थई शके? (दीपक जैन दिल्ही)
उत्तर:– भाईश्री, पू. गुरुदेव सदाय प्रवचनमां आत्मअनुभवनुं स्वरूप समजावे छे, अने
ते ज वखते साथे साथे तेवो अनुभव करवानी रीत पण बतावे छे. –अने ए माटे ज तो तेमनां
प्रवचनो छे. ते मुजब आपणे समजीने जो अंतरमां तेवो उपयोग करीए तो जरूर अनुभव
थाय. राग अने ज्ञान जुदा–ए खरूं, पण एटलुं मात्र विकल्पात्मक जाणपणुं ते पूरतुं नथी,
अंदरना चिन्तन वडे, रागमांथी उपयोग छूटो पडीने ज्ञान साथे उपयोग तन्मय थई जाय–त्यारे
साचो अनुभव थाय. ने त्यारे ज ज्ञानने अने रागने खरेखर जुदा जाण्या कहेवाय.
बोरीवली (मुंबई) थी राजुल जैन लखे छे के “बालविभागनुं अभिनंदन कार्ड बधा
दीवाळीकार्ड करतां मने जुदुं ज लाग्युं. तेमां सिद्धभगवान, कुंदकुंदभगवान, गुरुदेव वगेरेना मार्गे
चालवानी भावना जागी. –आवा बीजा घणाय पत्रो आव्या हता.
गतांकमां देडकानी वार्ता वांचीने घणाय बालसभ्योए पोतानो उत्साह लख्यो छे.
“आत्मधर्म मळ्युं –आत्मानो धर्म मळ्यो. पू. गुरुदेवश्रीनां परमार्थभूत प्रवचनो वांची
घणो उल्लास आवे छे.” –मगनलालभाई ट्रस्टी (सुरेन्द्रनगर)
प्रश्न:– सीताजी जेवा महा सतीने घोर दुःख पडवानुं कारण शुं?
(नं. १प६९ स्वातीबेन जैन)
उत्तर:– सीताजीनो आत्मा अमुक भव पहेलांं गुणवतीना भवमां हतो; ते वखते
अज्ञानथी तेणे मिथ्या मार्गनुं सेवन, जिनमार्गनी अश्रद्धा अने मुनिनिंदा करी हती, ते कारणे
सीताना भवमां तेनी निंदा थई ने तेना उपर खोटुं कलंक आव्युं. देव–गुरु–धर्मनी निंदाथी घणां
तीव्र अशुभकर्मो बंधाय छे ने अनेक भव सुधी तेनुं बुरुं फळ आवे छे. माटे देव–गुरु–धर्मनी
निंदा के अविनय कोई प्रकारे पण न करवो ने तेमनी भक्ति–बहुमान करवुं.
गुणवतीना भवमां धर्मनी निंदा करवाथी सीतानो जीव त्यारबाद सुकरी, भेंस, वानरी,