Atmadharma magazine - Ank 292
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: महा : र४९४ आत्मधर्म : ३३ :
प्रश्न:– ‘आत्माने रीझववा खातर जगतने वेचाय पण जगतने रीझववा खातर आत्माने
न वेचाय? –आनो अर्थ शो थाय छे ते लखशो. (K.J.Jain : लाठी)
उत्तर:– भाई, तमारो प्रश्न मजानो छे. तेनुं विवेचन तो घणुं थई शके, पण आ
विभागमां टूंकमां ज उत्तर आपवा पडे छे. ज्यां आत्मानुं कल्याण थतुं होय एवा प्रसंग
(धर्मात्मानो सत्संग वगेरे) माटे जगतनी गमे तेवी प्रतिकूळता आवे तो पण डगवुं नहि, अने
जगतनी गमे तेवी अनुकूळता आवे तोपण तेनाथी ललचाई पोताना आत्महितनो मार्ग छोडवो
नहीं. मरणनो (एटले के देह छूटवानो) प्रसंग आवे तो मंजुर करवो पण आत्महितना मार्गने
छोडवो नहि. मुमुक्षुने जे संतो पासेथी आत्महितनो मार्ग मळतो होय ते संतो जगतमां तेने
सौथी वहाला होय.
भगवानना दर्शन करती वखते बोलवानी एक स्तुति छे तेमां आवे छे के–
जिनधर्म विनिर्मुक्तो मा भवत्चक्रवर्त्यपि स्यात्चेटोपि दरिद्रोपि जिनधर्मानुवासित:
एटले के, जैनधर्मथी रहित एवुं चक्रवर्तीपणुं होय तोपण ते ईच्छनीय नथी. अने
जिनधर्ममां अनुवाससहित कदाच दरिद्रसेवकपणुं होय–तोपण ते ईष्ट छे. मुमुक्षुने आत्मा अने
धर्मात्मा करतां वधारे वहाली जगतमां कोई चीज न होय. “जगत ईष्ट नहि आत्मथी मध्यपात्र
महाभाग्य! ”
मुख फेरना पडेगा–
(एक पंडितजीनी वात)
सं. र००६ना फागण सुद पांचमे राजकोटमां पंचकल्याणक महोत्सवमां ईन्द्रप्रतिष्ठा प्रसंगे
गुरुदेव प्रत्ये उल्लास व्यक्त करतां प्रतिष्ठाचार्य पं. मुन्नालालजीए जणाव्युं हतुं के– आपश्री जैसा
प्रभावशाली पुरुष बहुत वर्षोमां हुआ हो ऐसा मेरे ख्यालमें नहीं है! लोग पूछा करते हैं कि
आत्माका भान कैसे हो और आत्माका ध्यान कैसे हो? मैं उसे द्रढतापूर्वक कहता हुं कि यदि
आत्माका ज्ञान और ध्यान करना हो तो तुम्हारा मुख सोनगढकी सन्मुख फेरना पडेगा.
(पंचकल्याणकप्रवचन: पृ: १७९)
प्रश्न:– जगतमां कई वस्तु उपमारहित छे? (
V.K.Jain : अमदावाद)
उत्तर:– चैतन्यवस्तु अने तेनुं सिद्धपद. (समयसारनी पहेली गाथा वांचजो.) जोके
केवळज्ञान, मुनिदशा के सम्यग्दर्शन ते पण उपमारहित छे, केमके बीजानी उपमावडे तेने
ओळखावी शकाता नथी.
प्रश्न:– जगतमां कई वस्तु एवी छे के जे सदाय सुख आपे?
उत्तर:– आपणो आत्मा पोते ज