ध्येयं श्रव्यं न लभ्यं न च विशदमते श्रेयमादेयमन्यत्।
श्रीमत्सर्वज्ञवाणीजलनिधिमथनात् शुद्धचिद्रूपरत्नं,
यस्मात्लब्धं मयाहो कथमपि विधिनाऽप्राप्तपूर्वं प्रियं च।। १९।।
नथी गम्य करवायोग्य–ढूंढवायोग्य, नथी कांई बीजुुंं कार्य करवायोग्य, नथी
अन्य कांई वाच्य–कहेवायोग्य, नथी तो कांई ध्येय, नथी बीजुं कांई श्रवणयोग्य,
नथी बीजुं कांई लभ्य–प्राप्त करवायोग्य, नथी अन्य कांई श्रेयरूप के आश्रय
करवायोग्य, अने नथी कांई बीजुं आदेय–ग्रहण करवायोग्य; केमके–में कोईपण
प्रकारे–महा प्रयत्ने श्रीमत् सर्वज्ञनी वाणीरूपी जलनिधिना मथन वडे
शुद्धचिद्रूपरत्न प्राप्त कर्युं छे...अहो! पूर्वे कदी नहि प्राप्त थयेलुं अने प्रिय एवुं आ
शुद्धचिद्रूपरत्न सर्वज्ञदेवनी वाणीना मथनथी मने प्राप्त थयुुं, पछी जगतमां
अन्य कोईपण पदार्थथी मारे शुं प्रयोजन छे?
जाणवायोग्य छे, ते ज द्रश्य छे, ते ज गम्य छे, ते ज कार्य छे, ते ज वाच्य छे, ते
ज ध्येय छे, ते ज श्रव्य छे, ते ज लभ्य छे, ते ज श्रेय अने आदेय छे; ते ज प्रिय
करवायोग्य छे; पूर्वे कदी तेनी प्राप्ति नथी करी.)