Atmadharma magazine - Ank 292
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: २ : आत्मधर्म : महा : र४९४
सुख विषे विचार
१हे भाई, तारे सुखी तो थवुं छे ने! तो सुखना स्वरूप विषे तें कदी विचार कर्यो छे? तुं
एटलो विचार करी जो, के तें जे–जे पर विषयमां सुख मान्युं छे ते–ते विषयमां आगळ ने
आगळ जतां छेवटे शुं परिणाम आवे छे? खावा–पीवा वगेरे कोईपण विषयमां छेवटे तो
कंटाळो ज आवे छे, ने ते छोडीने बीजा विषय तरफ उपयोग जाय छे. ए रीते, जो विषयोना
भोगवटामां अणगमो ज आवी जाय छे तो तुं समजी ले के तेमां खरेखर तारुं सुख हतुुंं ज नहि,
पण तें मात्र कल्पनाथी ज सुख मान्युं हतुं. जो खरेखर सुख होय तो ते भोगवतां भोगवतां कदी
कोईने कंटाळो आवे नहीं. जुओ, सिद्धभगवंतोने आत्मानुं साचुं सुख छे, तो तेमने ते सुख
भोगवतां अनंतकाळे पण कंटाळो आवतो नथी...आत्मिक सुखथी तेओ तृप्त–तृप्त छे.
हे आत्मार्थी! आत्मा सिवाय कोईपण बाह्य विषयमां सुख नथी, ए वात जो तुं जराक
विचार करीने जो तो तने प्रत्यक्ष अनुभवगम्य थाय तेवी छे. जेमके–लाडवा खावामां तें सुख
मान्युं, एक लाडवो खाधो...बे खाधा, त्रण...चार...खाधा...छेवटे एम थाय छे के हवे बस, हवे
लाडवा खावामां सुख लागतुं नथी. तो समजी ले के पाछळथी जेमां सुखनो अभाव भास्यो तेमां
पहेलेथी ज सुखनो अभाव छे. ए रीते लाडवाना स्थाने कोईपण परविषय लईने विचार करतां
नक्की थशे के ए विषयोमां सुख नथी पण आत्मस्वभावमां ज सुख छे. ए स्वभावसुख नक्की
करीने तेनी हा पाड, ने विषयोमां सुखनी बुद्धि छोड.
जेमां खरेखर सुख होय तेमां गमे तेटलुं आगळ ने आगळ जतां क््यारेय पण कंटाळो न
आवे; स्वभावमां सुख छे तो तेमां जेम–जेम आगळ वधे छे तेम–तेम सुख वधे छे...तेमां कंटाळो
आवतो नथी, ने विषयसुखोमां कंटाळो आव्या विना रहेतो नथी.