Atmadharma magazine - Ank 293
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९४ : आत्मधर्म : ९ :
निजपदनी साधना
वीतरागी सन्तो बोलावे छे–मोक्षना मारगमां
स्वानुभवपूर्वक अंतरमां निजपदने साधी रहेला धर्मात्मा,
बीजा जीवोने पण शुद्धचैतन्यपद देखाडीने मोक्षमार्गमां बोलावे
छे के अरे जीवो! आ मार्गे आवो...आ मार्गे आवो.
(समयसारकलश १३८–१३९ उपरना प्रवचनमांथी)
पोतानुं जे चैतन्यपद छे तेने जे देखता नथी,–अनुभवता नथी, ने रागादिने ज
निजपद मानी रह्या छे, ते जीवो आंधळा छे,–पोते पोताना स्वरूपने देखता नथी. अहीं
तो एवा जीवोने जगाडीने तेमनुं शुद्धपद आचार्यदेव देखाडे छे...ने ते तरफ बोलावे छे.
रे प्राणीओ! अशुद्ध रागादि भावोने ज निजरूप मानीने तेने ज तमे वेदी रह्या
छो, तेटलो ज पोताने मानी रह्या छो–पण ते जूठुं छे, जीवनुं स्वरूप ते नथी. जीव तो
शुद्ध चैतन्यमय छे, तेने भूलीने रागादि पर्याय जेटलो ज पोताने न अनुभवो. राग तो
उपाधि छे, ते मार्गे न जाओ न जाओ; ए मार्ग तमारो नथी, नथी; आ चैतन्यस्वरूप
तमे छो. आ मार्गे आवो...आ मार्गे आवो. आ शुद्ध चैतन्यपद तरफ वळो, तेने ज
अनुभवो...ए ज तमारो मार्ग छे. शुद्ध–शुद्ध (अत्यंत शुद्ध) एवा आ चैतन्यपदमां ज
तमारो आनंद छे, तेने छोडीने बीजे न जाओ, तेने छोडीने बीजाने न अनुभवो.
जेमांथी चैतन्यना आनंदनी परिणति झरे एवा चैतन्यपदने तो अनुभवतो
नथी, ने रागने ज निजपद समजी तेना अनुभवमां रोकाई रह्यो छे ते तो परभावनी
मायाजाळमां फसायेलो छे; ते पोताना चैतन्यभावने भूल्यो छे ने चार गतिना भवमां
सूतो छे, जे–जे भवमां जे पर्याय धारण करे छे ते पर्यायने ज अनुभववामां मशगुल
छे; हुं देव छुं; हुं मनुष्य छुं; हुं रागी छुं–एम अनुभवे छे, पण एनाथी जुदा पोताना
शुद्ध ज्ञायकपदने अनुभवतो नथी ते अंध छे. ते विनाशी भावोरूपे ज पोताने अनुभवे
छे पण अविनाशी निजपदने देखतो नथी. ते निजपदनो मार्ग भूलीने ऊंधा मार्गे चडी
गयो छे. सन्तो तेने हाकल करे छे के अरे जीव! थंभी जा! विभावना मार्गेथी पाछो
वळ...ए तारा सुखनो मार्ग नथी, ए तो मायाजाळमां फसावानो मार्ग छे...माटे ए
मार्गेथी रूक जा अने आ तरफ आव...आ तरफ आव. तारुं आनंदमय सुखधाम अहीं
छे...आ तरफ आव. देव तुं नहि, मनुष्य तुं नहि, रागी