Atmadharma magazine - Ank 293
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : फागण : २४९४ :
तुं नहि, तुं तो शुद्ध चैतन्य छो. तारो अनुभव तो चैतन्यमय छे. चैतन्यथी जुदुं कोई
पद तारुं नथी–नथी; ते तो अपद छे, अपद छे.
अरे, आवुं चैतन्यपद देखीने तेने साधवा आठ आठ वर्षना कुंवरो राजपाट
छोडीने वनमां चाल्या गया; अंतरमां अनुभवेला चैतन्यपदमां लीन थवा माटे
वीतरागमार्गे विचर्या. जे चैतन्यपदना अनुभव पासे ईन्द्रासन पण अपद लागे, तेना
महिमानी शी वात! अरे, तारुं शुद्ध चैतन्यस्वरूप जेवुं छे तेवुं जो तो खरो! अमृतथी
भरेलुं आ चैतन्यसरोवर, तेने छोडीने झेरना समुद्रमां न जा. भाई, दुःखी थवाना रस्ते
न जा...न जा. ए परभावना मार्गेथी पाछो वळ...पाछो वळ. ने आ चैतन्यना मार्गे
आव रे आव. बहारमां तारो मार्ग नथी, अंतरमां तारो मार्ग छे, अंतरमां आव...
आव. सन्तो प्रेमथी तने मोक्षना मार्गमां बोलावे छे.
–आवा मार्गमां कोण न आवे!! कोण विभावने छोडीने स्वभावमां न आवे?
बहारना राजवैभवने छोडीने अंतरना चैतन्यवैभवने साधवा राजाओ ने राजकुमारो
अंतरना मार्गमां वळ्‌या. बहारना भाव अनंतकाळ कर्या, हवे ते छोडीने अमारुं
परिणमन अंदर अमारा निजपदमां वळे छे,–हवे ए परभावना पंथमां हुं नहि जाऊं–
नहि जाऊं–नहि जाऊं; अंतरना अमारा चैतन्यपदमां ज ढळुं छुं. –आम
स्वानुभूतिपूर्वक धर्मी जीव निजपदने साधे छे...ने बीजा जीवोने पण कहे छे के हे जीवो!
तमे पण आ मार्गे आवो रे आवो. अंतरमां जोयेलो जे मोक्षनो मार्ग, आनंदनो मार्ग
ते बतावीने सन्तो बोलावे छे के हे जीव! तमे पण अमारी साथे आ मार्गे आवो...आ
मार्गे आवो. अविनाशीपदनो आ मार्ग छे...सिद्धपदनो आ मार्ग छे.
* * *
मोक्षार्थीए स्वाद लेवा योग्य, अनुभव करवायोग्य शुद्धचैतन्यपद एक ज छे,
एना सिवाय बीजुं अपद छे, शुद्धजीवनुं स्वरूप ते नथी. मोक्ष एटले के परम सुख
जोईतुं होय तेणे निरंतर आ शुद्धपदनो ज अनुभव करवो. शुं करवुं ने शेमां ठरवुं?–तो
कहे छे के पोताना शुद्ध चैतन्यपदमां द्रष्टि करवी ने तेमां ठरवुं. शरीर के घर ते तारुं पद
नथी, ते तारुं रहेठाण नथी, संयोगो ते तारुं रहेठाण नथी, राग ते तारुं रहेठाण नथी,
तारुं रहेठाण असंख्यप्रदेशी चैतन्यरसथी भरपूर छे, ते ज तारुं निजपद छे.–एनो
अनुभव लेवो ते ज मोक्षनुं एटले चिरसुखनुं कारण छे. चिरसुख एटले लांबुं सुख,
अनंतकाळनुं सुख, शाश्वत सुख, मोक्षसुख.
आत्मा पोते सत्य अविनाशी वस्तु छे, तेना अनुभवथी थयेलुं सुख शाश्वत
अविनाशी छे. आत्मानो आनंद तो पोतामां छे, परमां क्यांय आनंद नथी. जेमां
आनंद न होय तेने निजपद केम कहेवाय? निजपद तो तेने कहेवाय के जेमां आनंद