: फागण : २४९४ : आत्मधर्म : १३ :
परम शांतिदातारी अध्यात्मभावना
(लेखांक छेल्लो–६०) (अंक २९२ थी चालु)
भगवान श्री पूज्यपादस्वामी रचित समाधिशतक उपरनां पू. श्री
कानजीस्वामीनां प्रवचनोनी आ लेखमाळा आ अंके समाप्त थाय छे.
अत्यंत सुगमशैलिथी वैराग्यपूर्वक भेदज्ञान अने समाधिनी प्रेरणा आ
शास्त्रमां अने प्रवचनोमां भरेली छे. सुगमशैलीना अध्यात्मलेखो माटे
घणा जिज्ञासुओनी भावना होवाथी आ लेखमाळा शरू करेली, अने
जिज्ञासुओए पण तेना वांचन प्रत्ये उत्साह बताव्यो. शास्त्रकर्ता
आचार्यदेवनो थोडोक परिचय लेखमाळाना अंत भागमां आपेल छे. आ
समाधिशतक शास्त्र गुजराती अर्थ सहित सोनगढथी प्रसिद्ध थई गयेल छे.
(वीर सं. २४८२ श्रावण सुद पूर्णिमा)
आत्माने अने शरीरने निमित्तनैमित्तिकसंबंधने लीधे घणीवार जीवनी
ईच्छानुसार देहादि क्रिया थती देखीने एवो भ्रम न करवो के आत्माने लीधे शरीरनुं
यंत्र चाले छे! पण आत्माने देहथी भिन्न ज जाणवो, आत्मामां देहनो आरोप न करवो.
देहथी भिन्न आत्मानी भावना करीने एकाग्र थवुं–जेथी परमपदनी प्राप्ति थाय. –एम
बे गाथामां कहे छे–
प्रयत्नादात्मनो वायुरिच्छाद्वेषप्रवर्तितात्।
वायोः शरीरयन्त्राणि वर्तन्ते स्वेषु कर्मसु।।१०३।।
तान्यात्मनि समारोप्य साक्षाण्यास्तेऽसुखं जडः।
त्यत्त्क्वारोपं पुनर्विद्वान् प्राप्नोति परमं पदम्।।१०४।।
आत्मामां राग–द्वेषरूप ईच्छानो प्रयत्न थतां, तेना निमित्ते एक जातनो वायु
शरीरमां उत्पन्न थाय छे, ने ते वायुना संचारथी शरीररूपी यंत्र पोताना कार्यमां प्रवर्ते
छे. त्यां ते देहना कार्योनो आत्मामां आरोप करीने अज्ञानी तेने आत्मानी ज क्रिया
माने छे. पण अहीं आचार्यदेव कहे छे के देहनी क्रियानो आत्मामां आरोप करवो ते तो
मूर्ख–बहिरात्मानुं कार्य छे. ज्ञानी तो शरीरनी क्रियामां आत्मानी कल्पना छोडीने, देहथी
भिन्न चिदानंदस्वरूप आत्मानी भावना भावीने परम पदने पामे छे.