: १४ : आत्मधर्म : फागण : २४९४ :
शरीर अने ईंद्रियोनी क्रिया, जाणे के हुं ज करुं छुं–एम अज्ञानी जीव भ्रमथी ते
जडनी क्रियाओने आत्मानी ज माने छे, तेथी ते जडबुद्धि बहिरात्मा ईंद्रियविषयोनी
जाळमां ज फस्यो रहे छे ने दुःखी थाय छे; देहनी क्रियामां ज राग–द्वेष करतो थको दुःखी
थाय छे पण चैतन्यमां ठरतो नथी. ज्ञानी–विवेकी–अंतरात्मा तो शरीर अने ईंद्रियोनी
क्रियाने पोताथी तद्न भिन्न जाणीने चैतन्यस्वरूप आत्मानी भावनामां एकाग्र थईने
परम पदने पामे छे.
अज्ञानी परविषयोथी पोताने सुख–दुःख मानीने तेमां ज लीन रहे छे. ज्ञानी तो
जाणे छे के सर्वे द्रव्यो एकबीजाथी असहाय छे, कोई कोईने रागद्वेषमां प्रेरतुं नथी.
छए द्रव्यो सदाय पोतपोताना स्वरूपमां प्रवर्ती रह्या छे.
जीवनी ईच्छा थाय ने गमन करे त्यां शरीर पण भेगुं चाले, जीवनी ईच्छा थाय
त्यां भाषा पण घणीवार तेवी बोलाय, –आवो निमित्तनैमित्तिक संबंध छे, पण बंनेनी
क्रियाओ भिन्न छे, बंनेना लक्षणो भिन्न छे, एम नहि जाणनार अज्ञानी ‘हुं ज शरीरने
चलावुं छुं–हुं ज भाषा बोलुं छुं’ एम देहनो पोतामां आरोप करे छे ने तेथी देहसंबंधी
विषयोमां ते सुख माने छे. पण भिन्न आत्माने जाणनारा ज्ञानी तो ते आरोपने जूठो
जाणीने देहथी भिन्न अंतरात्माने अनुभवे छे, अने आत्मामां देहनो आरोप छोडीने,
परमपदने पामे छे.
आ रीते भेदज्ञानवडे भिन्न लक्षणनी ओळखाणपूर्वक शरीर अने आत्मानो
एकबीजामां आरोप छोडीने, अने निमित्त–नैमित्तिक संबंधनुं पण लक्ष छोडीने, देहथी
भिन्न आत्माना अनुभवमां एकाग्रता करवी ते ज परम आनंदमय परमात्मपदनी
प्राप्तिनो उपाय छे, ते ज समाधि छे. ।। १०४ ।।
परमात्मपदनी प्राप्तिनो मार्ग बतावनार आ समाधितंत्रने जाणीने
परमात्मनिष्ठ जीव परमसुखने पामे छे,–एम अंतिम श्लोकमां शास्त्रनुं फळ बतावीने
अंतमंगळ करे छे:–
मुक्त्वा परत्र परबुद्धिमहंधियं च, संसारदुःखजननीं जननाद्विमुक्तः।
ज्योतिर्मयं सुखमुपैति परात्मनिष्ठः, तन्मार्गमेतदधिगम्य समाधितन्त्रम्।।१०५।।
भेदज्ञान वडे जेनी प्राप्ति थाय छे एवा परमपदनी प्राप्तिनो मार्ग आ
समाधितंत्र बतावे छे. जेनाथी समाधि एटले के परमसुख थाय एवो उपदेश आ
समाधितंत्रमां छे. तेने जाणीने शुं करवुं? के संसारदुःखनी जनेता एवी जे स्व–परनी
एकत्वबुद्धि तेने छोडवी, ने उत्कृष्ट आत्मस्वरूपमां स्थिर थवुं. देहमां आत्मबुद्धि, ने