Atmadharma magazine - Ank 293
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९४ : आत्मधर्म : १५ :
आत्मामां देहबुद्धि–एवी जे स्व–परनी एकत्वबुद्धि छे ते संसारना दुःखनी जननी छे,
मिथ्याबुद्धि ज संसारनुं मूळ छे. आ शास्त्रना उपदेशअनुसार ते मिथ्याबुद्धि छोडीने,
देहथी भिन्न आत्माने जाणीने, तेमां जे स्थिर थाय छे ते अंतरात्मा आ संसारना
जन्ममरणथी मुक्त थईने परम केवळज्ञानज्योतिमय सुखने पामे छे. आवुं उत्तम आ
शास्त्रनुं फळ छे...ते मंगळ छे.
‘समाधितंत्र’ एटले चैतन्यस्वरूपमां एकाग्रतावडे परम उदासीनतानो उपदेश;
घणा प्रकारे द्रष्टांत वगेरेथी स्पष्ट करीने देह अने आत्मानी अत्यंत भिन्नता बतावी;
एवी भिन्नता जाणीने देहबुद्धि छोडीने पोताना परम आत्मस्वरूपमां जे स्थिर थाय छे
ते परमसुखने अनुभवे छे. जुओ, आवुं भेदज्ञान करीने स्वरूपमां स्थित थवुं ते शास्त्र
भणवानुं फळ छे; एवुं जेणे कर्युं ते खरेखर शास्त्रने भण्यो छे. पोतामां भाव प्रगट
कर्या वगर मात्र वांची जवाथी शास्त्रनुं फळ आवे नहि. शास्त्रज्ञाननुं फळ तो परम
वीतरागता अने सुख छे.
समयसारमां छेल्ले फळ बतावतां कुंदकुंदाचार्यभगवान कहे छे के:–
जो समयपाहुडमिणं पठिहूणं अत्थतच्चओ णाउं।
अत्थे ठाही चेया सो होही उत्तमं सोक्खं।।
आत्मस्वरूपमां स्थिर थतां परमसुखनी अनुभूति थाय–ए ज बधा शास्त्रोनो
सार छे. अहीं पण परमात्मस्वरूपमां स्थिरताथी सुख थाय छे–एवुं आ शास्त्रनुं फळ
बतावीने मंगळपूर्वक शास्त्र समाप्त थाय छे.
आ शास्त्रकर्ता श्री पूज्यपादस्वामी महासमर्थ दिगंबर सन्त हता; तेओ विक्रम
सवंतना छठ्ठा सैकामां (आजथी लगभग १५०० वर्ष पूर्वे) आ भारतभूमिने
शोभावता हता; तेमनी अगाधबुद्धिने लीधे तेओ ‘जिनेन्द्रबुद्धि’ एवा नामथी पण
लोकोमां प्रसिद्ध हता; तेमनुं मूळ नाम ‘देवनन्दी’ हतुं ने देवोद्वारा पण तेमना पाद
पूजित (पूज्य–पाद) हता. ‘श्रवणबेलगोल’ना पहाड उपर तेमना महिमासंबंधी अनेक
श्लोको कोतरेला छे. ‘तत्त्वार्थसूत्र’ उपरनी सौथी प्रसिद्ध एवी ‘सर्वार्थसिद्धि’ नामनी
महान टीका तेमणे रची छे. ते उपरांत जैनेन्द्र–व्याकरण नामनुं महान शब्दशास्त्र तेमणे
रच्युं छे, तेथी
‘शब्दाब्धीन्दु ़ ़ ़’ एटले के शब्दरूपी समुद्रने उछाळवामां चंद्रसमान–एवुं
विशेषण आपीने श्री पद्मप्रभमुनिराजे नियमसारनी टीकाना मंगलाचरणमां तेमने वंदन
कर्या छे. आदिपुराणमां जिनसेनस्वामीए तथा ज्ञानार्णवमां