पण रच्युं छे; तेमणे रचेली ‘
शैलीथी बताव्यो छे, ते टूंकामां घणुं भरी देवानी तेमनी अगाधशक्ति सूचवे छे. आ
अध्यात्ममस्त सन्तद्वारा आ समाधिशतक रचायुं छे; श्री प्रभाचंद्रस्वामीए तेनी सुगम
टीका संस्कृतमां करी छे. शास्त्रमां वारंवार भेदज्ञाननी भावना घूंटी छे ने आत्माने
समाधि–सुख थाय तेवो उपदेश कर्यो छे.
भव्यजीवोने आत्मिकसुखरूप परम समाधि आपो.
सबके उरमंदिर वसो पूज्यपाद भगवान.
पढो सुनो सब ग्रन्थ यह, सेवो अति हित मान,
आत्म–समुन्नति बीज जो करो जगत कल्याण.
झरणुं वहेतुं होय–एवी शांति थती हती...अत्यंत सुगम शैली, वारंवार अंतर्मुखी
आत्मभावनानुं घोलन, वैराग्यझरता शांतशांत मधुर भावो, ए बधाथी भरपूर
प्रवचनो तत्क्षण ज संसारना सर्व संकलेशोने शमावीने अंतरमां चैतन्यशांतिना
मधुरा वातावरणमां आत्माने लई जता हता. आवा अत्यंत सुगम वैराग्यरसभीनां
आत्माभिमुखी प्रवचनो सर्व जिज्ञासुओने महान उपकारी होवाथी ‘आत्मधर्म’मां
तेनो सार आपवानुं ११ वर्ष पहेलां (अंक १५८ थी) शरू करेल, ते आजे आ
सींचन करी करीने आ प्रवचनो द्वारा समाधिना हेतुभूत एवुं परम आत्मज्ञान
गुरुदेवे समजाव्युं छे, बहिरात्मभाव छोडवानी ने अंतरात्मभाव जागृत करवानी
वारंवार प्रेरणा आपी छे... आवा बोधिसमाधिदातार पू. गुरुदेवना मंगलचरणोमां
नमस्कार