: फागण : २४९४ : आत्मधर्म : २५ :
श्रीमद् राजच्ांद्रजीनां वच्ानामृत
(जन्मशताब्दि–लेखमाळा : ले.६)
(३१३) “धर्म” ए वस्तु बहु गुप्त रही छे. ते बाह्यसंशोधनथी मळवानी नथी. अपूर्व
अंर्तसंशोधनथी ते प्राप्त थाय छे. ते अंतरसंशोधन कोईक महाभाग्य सद्गुरु
अनुग्रहे पामे छे. (४)
(३१४) एक भवना थोडा सुखने माटे अनंत भवनुं अनंत दुःख नहि वधारवानो
प्रयत्न सत्पुरुषो करे छे. (४७)
(३१प) कोई पण प्रकारे सद्गुरुनो शोध करवो; शोध करीने तेना प्रत्ये तन, मन अने
आत्माथी अर्पणबुद्धि करवी; तेनीज आज्ञानुं सर्व प्रकारे निःशंकताथी
आराधन करवुं; अने तो ज सर्व मायिकवासनानो अभाव थशे एम समजवुं.
(१६६)
(३१६) मोक्षनो मार्ग बहार नथी, पण आत्मामां छे. मार्गने पामेलो मार्ग पमाडशे.
(१६६)
(३१७) सत्पुरुष एज के निशदिन जेने आत्मानो उपयोग छे; शास्त्रमां नथी अने
सांभळ्यामां नथी, छतां अनुभवमां आवे तेवुं जेनुं कथन छे; अंतरंगस्पृहा
नथी एवी जेनी गुप्त आचरणा छे. (७६)
(३१८) पूर्वे थई गयेला अनंत ज्ञानीओ जोके महा ज्ञानी थई गया छे, पण तेथी कंई
जीवनो दोष जाय नहीं; एटले के अत्यारे जीवमां मान होय ते पूर्वे थई
गयेला ज्ञानी कहेवा आवे नहीं; परंतु हाल जे प्रत्यक्ष ज्ञानी बिराजमान होय
ते ज दोषने जणावी कढावी शके. जेम दूरना क्षीर समद्रथी अत्रेना तृषातुरनी
तृषा छीपे नहीं. पण एक मीठा पाणीनो कळशो अत्रे होय तो तेथी तृषा छीपे.
(४६६)
(३१९) जीवे धर्म पोतानी कल्पना वडे अथवा कल्पनाप्राप्त अन्य पुरुषवडे श्रवण
करवाजोग, मनन करवाजोग के आराधवाजोग नथी. मात्र आत्मस्थिति छे
जेनी एवा सत्पुरुषथी ज आत्मा के आत्मधर्म श्रवण करवाजोग छे, यावत्
आराधवाजोग छे. (४०३)
(३२०) पूर्वे थई गयेला मोटा पुरुषनुं चिंतन कल्याणकारक छे; तथापि स्वरूपस्थितिनुं
कारण होई शकतुं नथी; कारण के जीवे शुं करवुं ते तेवा स्मरणथी नथी