Atmadharma magazine - Ank 293
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९४ : आत्मधर्म : २७ :
‘परमात्मप्र्रकाश’नी टीकानुं मंगलाच्ारण
चिदानन्दैकरुपाय जिनाय परमात्मने।
परमात्मप्रकाशाय नित्यं सिद्धात्मने नमः।।१।।
गतांकमां आपेलो आ श्लोक “परमात्मप्रकाश’नी श्री ब्रह्मदेवरचित संस्कृत
टीकामां पहेलो श्लोक छे : तेमां मंगलाचरण तरीके नमस्कार करतां कहे छे के–परमात्म–
स्वरूपने प्रकाशवा माटे श्री जिन परमात्माने नित्य नमस्कार हो–के जेओ चिदानंद
एकरूप छे अने सिद्धस्वरूप छे अर्थात् जेमनो आत्मा कृतकृत्य छे. अथवा, ते सिद्ध–
आत्माने नित्य नमस्कार हो–के ज्ञान ने आनंद ज जेनुं एक रूप छे, जेओ जिन छे
अने परमात्मा छे. –तेमने परमात्मस्वरूपना प्रकाशने माटे नमस्कार हो.
समयसारनी शैलीने अनुसरनारुं आ ‘परमात्मप्रकाश’ अत्यंत सुगम
अध्यात्मशास्त्र छे. श्री योगीन्दुस्वामीए लगभग १४०० वर्ष पहेलां आ शास्त्र रच्युं
छे. तेमां पहेला प्रकरणमां अंतरात्मा बहिरात्मा अने परमात्मानुं स्वरूप समजाव्युं छे,
ने बीजा प्रकरणमां मोक्षमार्गनुं तथा मोक्षनुं सुंदर–सुगम प्रतिपादन छे. तेमां पण
शरूआतनी सात गाथाओ द्वारा त्रणकाळना सिद्धभगवंतो सहित पंचपरमेष्ठी
भगवंतोने भावथी फरीफरीने नमस्कार करीने, दुःखथी भयभीत शिष्य श्रीगुरु पासे
विनति करे छे के हे स्वामी! आ संसारमां वसता मारो अनंतकाळ वीती गयो, पण हुं
जरापण सुख न पाम्यो, महान दुःख ज पाम्यो; माटे हे प्रभो! चतुर्गतिना दुःखथी
संतप्त एवा मने, चारगतिना दुःखनो विनाश करनार एवुं जे परमात्मतत्त्व छे ते कृपा
करीने कहो. –आवी भावभीनी मंगल–भूमिका घणी आनंदकारी छे. पछी आगळ जतां
मोक्षसुख समजाववा माटे पशुनो दाखलो आपीने कहे छे के–जो मोक्षमां उत्तम सुख न
होत तो पशु पण बंधनमांथी छूटकारानी ईच्छा केम करत ? जुओ, बंधनमां बंधायेला
वाछरडाने पाणी पावा माटे बंधनथी छोडवा जाय त्यां छूटकाराना हरखथी ते कुदाकुद
करवा मांडे छे; अहा, छूटवाना टाणे ढोरुनुं बच्चुं पण होंशथी नाची ऊठे छे. तो अरे
जीव! अनादिकाळथी