Atmadharma magazine - Ank 293
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: २८ : आत्मधर्म : फागण : २४९४ :
अज्ञानभावे आ संसारना बंधनमां बंधायेलो तुं, अने हवे आ मनुष्यभवमां
सत्समागमे ए संसारबंधनथी छूटवाना (मोक्षने साधवाना) तने टाणां आव्या, सन्तो
तने तारा मोक्षनी वात संभळावे, –अने ए सांभळतां छूटकाराना आनंदथी तारुं हैयुं जो
नाची न ऊठे–तो तुं पेला वाछरडामांथी पण जाय तेवो छे ! अहा, मोक्षना परमसुखनी
वात ज्ञानी पासेथी सांभळतां क्या आत्मार्थी जीवने अंतरमां होंश ने उल्लास न आवे!
सत्स्वभावना उल्लासथी अल्पकाळमां ते जीव मुक्तिने साध्या वगर रहे नहीं.
परमात्मप्रकाशनी टीकामां छेल्ले शास्त्रना तात्पर्य तरीके शुद्धात्मानी भावना
शोधे छे शुं किनारे मोतीने शोधनारा?
कोडीने शंखलीओ देशे तने किनारा.
वस्तु कदी मोंघी य मळती नथी सहजमां,
मोतीने मेळवे छे मजधार डूबनारा.
(जयेन्द्र महेता)
(अहीं विकल्परूपी किनारो,
रत्नत्रय रूपी मोती ने स्वानुभूतिरूपी
समुद्र–एम लक्षगत करीने उपरनी पंक्ति
फरी विचारो.)
जीवन में सुख दुःखादिक का,
चक्र निरंतर फिरता है ।
मानव–पद के गुण–गौरव का
सफल परीक्षण करता है ।
वीर पुरुष की संकट में भी,
धर्म–भावना बढती है ।
उलटी करने पर भी अग्नि–
ज्वाला ऊपर चढती है ।