Atmadharma magazine - Ank 293
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 35 of 45

background image
: ३२ : आत्मधर्म : फागण : २४९४ :
र्ज्ञ माह वद बीजनी सवारनी
सरस चर्चानो नमुनो
सर्वज्ञनो धर्म त्यां छे के ज्यां सर्वज्ञस्वभावनी प्रतीत छे.
‘सर्व–ज्ञ’ –बधाना जाणनार, ‘सर्व पदार्थो–तेने जाणनार कोई नथी’ एम सर्वज्ञ
होवानी कोई ना पाडे तो, ‘सर्वज्ञेयो’ नो तेणे पोते तो स्वीकार कर्यो के नहि? –
अरे, जे ज्ञेयोने तुं स्वीकारी शके छे तेने बीजा न जाणी शके–एम तुं कई रीते
निषेध करी शके? ‘सर्व पदार्थ छे” एम तुं बोले छे, ने तेने जाणनार कोई नथी–
एम कहेवुं ते तो परस्पर विरुद्ध छे.
हे भाई! ‘सर्व’ वस्तुना अस्तित्वने तुं स्वीकारे छे ने तेना ‘ज्ञान’ नुं अस्तित्व
नथी स्वीकारतो, तो तने ‘ज्ञानसमय’ नी खबर ज नथी, एटले सर्वने जाणवानी
शक्तिवाळा आत्माने तें जाण्यो नथी.
सामे एक साथे ‘सर्व’ वस्तु छे, तो अहीं तेने एकसाथे जाणवाना सामर्थ्यवाळुं
ज्ञान (एटले के सर्वज्ञता) पण छे; अने वाणीमां पण एम आवे छे के ‘आत्मा
सर्वज्ञ छे.’ –आ रीते अर्थ समय, ज्ञानसमय ने शब्दसमय–ए त्रणेमां पूर्णता छे.
ज्ञाननी पूर्णता एटले के सर्वज्ञस्वभाव, तेने स्वीकार्या वगर ज्ञेयोनी पूर्णताने
(सर्वज्ञेयोने) के तेनी वाचक एवी सर्वज्ञनी वाणीने यथार्थपणे जाणी शकाय नहि.
सामे बधा ज्ञेय, अहीं बधुं ज्ञान,
तेमां वच्चे राग रहेतो नथी; केमके
पूरा ज्ञानमां राग होय नहीं.
सर्वज्ञान ने सर्वज्ञेय, तेनुं अस्तित्व स्वीकारनारने राग ते ज्ञेयोमां जाय छे, पोतानुं
अस्तित्व पूरा ज्ञानपणे ज रहे छे.
ज्ञानपणे ज परिणमतो ते पोतानी सर्वज्ञताने साधी ल्ये छे.
आत्मानुं सर्वज्ञस्वरूप जेवुं छे तेवुं निर्णयमां लईने, अंतर्मुख उपयोगवडे द्रव्य
साथे पर्यायनी एकता करीने जाणे त्यारे आत्मानुं स्वरूप साचुं जाण्युं कहेवाय.
स्वसन्मुख एकता वगर, एकला परलक्षे आत्मानुं साचुं ज्ञान थाय नहि,
स्वसंवेदन थतां अंतरमांथी एवुं ज्ञान खील्युं के खातरी थई गई के अहो! हुं तो
ज्ञाननो ज पिंड छुं. अगाध ज्ञानसामर्थ्यथी हुं भरेलो छुं. –आवा ज्ञाननुं वेदन
थतां ज रागना वेदनथी अत्यंत भिन्नता थई. ते ज्ञान मोक्ष तरफ चाल्युं.