Atmadharma magazine - Ank 293
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९४ : आत्मधर्म : ३३ :
ज्ञानर्चा
अज्ञानी जीव ज्ञाननी प्रसिद्धि वगर एकला ज्ञेयने प्रसिद्ध करवा मांगे छे–ते तो
पोतानी नास्ति जेवुं थयुं! हे मूढ! ‘सर्व पदार्थ छे पण तेनुं ज्ञान नथी’ –तो सर्व
पदार्थनी प्रसिद्धि करी कोणे? –सर्व पदार्थ छे–एम जाण्युं कोणे? जेम दश मूरखा पोते
पोताने गणतां भूली गया, ने कहे के अमे नव छीए, एक (हुं) खोवाई गयो! –एवी
ज मूर्खता तुं करे छे. सर्व पदार्थ होवानी हा पाडवी ने सर्वज्ञतानी ना पाडवी–ए तो
एवी मूर्खता थई के–परद्रव्य छे पण हुं नथी.
अरे, ‘हुं नथी’ एम कोण कहे छे ? –एम कहेनार पोते ज तुं छो. श्रीमद्
राजचंद्रजी नानी वयमां लखे छे के–
करी कल्पना द्रढ करे नाना नास्तिविचार,
पण अस्ति ते सूचवे, ए ज खरो निर्धार.
‘हुं नथी, आत्मा नथी’ एवा नास्तिपणाना विचार जे भूमिकामां ऊठे छे त्यां
ज तुं छो; एटले नास्तिनो विचार ते पण विचार करनारनी अस्ति सूचवे छे. तारी
अस्ति विना ‘नास्ति’ नो विचार कर्यो कोणे? तारा वगर कये ठेकाणे ए विचार
ऊठ्यो?
हवे ज्ञेयोने जाणनार ‘हुं ज्ञान छुं’ एम स्वीकारनार पर्याय पण अंतर्मुख
थईने पोताना आखा ज्ञानस्वभावने प्रसिद्ध करे छे. अने ए रीते ज्ञानस्वभावने
प्रसिद्ध करनारी पर्याय ईंद्रियोथी ने रागथी अधिक छे, एटले के ईंद्रियो तथा रागने बाद
करतां पण ज्ञान पोताना स्वरूपे टकी रहेनारुं छे. ईंद्रियोना अभावमां ज्ञाननो अभाव
नथी, रागना अभावमां ज्ञाननो अभाव नथी; केमके आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप छे;
ईन्द्रियो के राग ते कांई ज्ञानस्वरूप नथी, ज्ञानथी भिन्न छे. अत्यारे पण ज्ञाननुं
परिणमन तेमनाथी जुदुं ज वर्ते छे.
आ रीते ईंद्रियोथी ने रागथी रहित ज्ञानने जाण्युं त्यां तेमनाथी खसीने ज्ञाननी