Atmadharma magazine - Ank 293
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म : फागण : २४९४ :
देहथी भिन्न अमूर्तिक आत्मा
(लेखांक (२) गतांकथी चालु)

चेतनस्वरुप अमूर्त आत्मा. जड अने मूर्त एवा शरीरथी
सर्व प्रकारे जुदो छे. माटे हे जीव! देहनी चेष्टाओने तारी न जाण;
देहथी पार अंदरनी चैतन्यचेष्टाने तारी जाण. अशरीरी चैतन्यबिंब
आत्माने मूर्तशरीरना संबंधथी ओळखवो ते तो शरम छे.
‘देहभिन्न केवळ चैतन्यनुं ज्ञान जो...’ एवा
आत्मज्ञानपूर्वकना ध्यानथी ज अशरीरी एवुं सिद्धपद पमाय छे.
शरीरने आत्मा माननारो जीव देहातीत एवी सिद्धदशाना पंथने
जाणी शकतो नथी.

प्रश्न :–
गोम्मटसार वगेरेमां तो जीवने मूर्त पण कह्यो छे ने?
उत्तर :– अशुद्ध पर्यायमां जीवने मूर्तकर्म साथे निमित्तसंबंध छे तेथी उपचारथी
ज तेने मूर्त कह्यो छे, तो पण निश्चयथी जेनो स्वभाव सदाय अमूर्त छे अने
उपयोगगुण वडे अन्य समस्त द्रव्योथी जेनी अधिकता छे एवा जीवने वर्णादि मूर्तपणुं
जरापण नथी. समयसार गा. ६२मां, वर्णादिकनी साथे जीवनुं तादात्म्य माननारने
कहे छे के–हे मिथ्या अभिप्रायवाळा! जो तुं एम माने छे के आ वर्णादिक सर्वे भावो
जीव ज छे अर्थात् जीव मूर्त ज छे, तो तारा मते जीव अने अजीवमां कंई ज भेद
रहेतो नथी.
वळी जो तुं एम कहे के संसारी जीवने ज वर्णादिक साथे तादात्म्यपणुं छे एटले
के संसारी जीवो मूर्त छे, तोपण संसारमां स्थित बधा जीवो रूपी थई जाय; ने रूपी तो
पुद्गल होय, जीव न होय. एटले हे मूढमति! तारी मान्यतामां तो पुद्गल ते ज जीव
ठर्यो, एटले मोक्ष पण पुद्गलनो ज थयो! माटे हे भाई! तुं न्यायथी समज के अरूपी
एवा चैतन्यस्वरूप आत्माने सिद्धदशामां के संसारदशामां कदी मूर्तपणुं नथी, ते सदा
अमूर्तस्वभावी ज छे. देहादि मूर्तवस्तुना संयोगमां रह्यो तेथी कांई ते मूर्त थई