चेतनस्वरुप अमूर्त आत्मा. जड अने मूर्त एवा शरीरथी
देहथी पार अंदरनी चैतन्यचेष्टाने तारी जाण. अशरीरी चैतन्यबिंब
आत्माने मूर्तशरीरना संबंधथी ओळखवो ते तो शरम छे.
शरीरने आत्मा माननारो जीव देहातीत एवी सिद्धदशाना पंथने
जाणी शकतो नथी.
प्रश्न :– गोम्मटसार वगेरेमां तो जीवने मूर्त पण कह्यो छे ने?
उत्तर :– अशुद्ध पर्यायमां जीवने मूर्तकर्म साथे निमित्तसंबंध छे तेथी उपचारथी
उपयोगगुण वडे अन्य समस्त द्रव्योथी जेनी अधिकता छे एवा जीवने वर्णादि मूर्तपणुं
जरापण नथी. समयसार गा. ६२मां, वर्णादिकनी साथे जीवनुं तादात्म्य माननारने
कहे छे के–हे मिथ्या अभिप्रायवाळा! जो तुं एम माने छे के आ वर्णादिक सर्वे भावो
जीव ज छे अर्थात् जीव मूर्त ज छे, तो तारा मते जीव अने अजीवमां कंई ज भेद
रहेतो नथी.
पुद्गल होय, जीव न होय. एटले हे मूढमति! तारी मान्यतामां तो पुद्गल ते ज जीव
ठर्यो, एटले मोक्ष पण पुद्गलनो ज थयो! माटे हे भाई! तुं न्यायथी समज के अरूपी
एवा चैतन्यस्वरूप आत्माने सिद्धदशामां के संसारदशामां कदी मूर्तपणुं नथी, ते सदा
अमूर्तस्वभावी ज छे. देहादि मूर्तवस्तुना संयोगमां रह्यो तेथी कांई ते मूर्त थई