Atmadharma magazine - Ank 293
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९४ : आत्मधर्म : ५ :
गयो नथी, जगतमां छए द्रव्यो एकक्षेत्रे सदा भेगां रहेवा छतां कोई पण द्रव्य
पोताना स्वधर्मने छोडतुं नथी ने अन्यना धर्मरूप थतुं नथी, आवी ज वस्तुस्थिति छे.
अमूर्त शक्तिनुं कार्य पण अमूर्त छे; आत्माना अमूर्तत्वगुणे आखा आत्माने अमूर्त
एटले कर्मना संबंध वगरनो राख्यो छे. आवा स्वभावे आत्माने ओळखवो ते ज तेनी
साची ओळखाण छे.
ज्ञानस्वरूपी आत्मा स्वभावथी अमूर्त ज छे; तेना उत्पाद–व्यय अमूर्त छे, तेना
गुण–पर्यायो अमूर्त छे; तेना स्वभावमां मूर्तनो स्पर्श नथी, कर्मनो स्पर्श नथी. आवो
ज्ञानमूर्ति आत्मा अमूर्तपणे शोभी रह्यो छे. ‘ज्ञानमात्रभाव’मां अमूर्तपणुं भेगुं
समाय छे, पण ज्ञानमात्रभावमां मूर्तपणुं भेगुं समातुं नथी. ज्ञानमात्रमां कर्मनो
संबंध क्यांय आवतो नथी, के देहादिनी क्रिया आवती नथी. अमूर्त आत्मा मूर्तनी
क्रिया केम करे? आवो आत्मा द्रष्टिमां ने अनुभवमां लीधा वगर धर्म थाय नहीं,
एटले आत्मवैभवनी प्रसिद्धि थाय नहीं.
आत्माना ज्ञान साथे शुं मूर्तपणुं होय? –ना; ज्ञान साथे तो अमूर्तपणुं होय.
आत्माने ज्ञानमात्र कहे अने वळी तेमां कर्मनो संबंध के मूर्तपणुं माने तो तेणे खरेखर
आत्माने ज्ञानमात्र नथी जाण्यो. ज्ञानमात्र आत्मामां जेम दुःख नथी तेम ज्ञानमात्र
आत्मामां मूर्तनो संबंध नथी. ज्ञानमात्र वस्तु स्पर्शादि रहित ज छे. अरे, अशरीरी
चैतन्यबिंब अरूपी आत्माने मूर्तशरीरना संबंधथी ओळखवो ते तो शरम छे–कलंक छे.
पोतानी अनंत चैतन्यशक्तिमां भगवान आत्माए मूर्तपणाने कदी ग्रह्युं ज नथी.
उपचारथी कयांक मूर्त कह्यो पण ते उपचारनी वात अहीं स्वभावमां लागु पडती नथी.
अहीं तो स्वभाव उपर द्रष्टि करीने आत्मा शुद्धपणे परिणमे, अने तेमां उपचारनो के
परना संबंधनो अभाव थई जाय एवी वात छे.
पंचास्तिकाय वगेरेमां आत्माना द्रव्य–गुण–पर्याय अमूर्त कह्या छे. पुद्गल
सिवायना पांचे द्रव्यो अमूर्त छे–एम कह्युं छे, त्यां तो राग–द्वेषादि विकारी परिणाम
पण ते अमूर्तपणामां समाय छे. अने अहिं आत्मानो जे अमूर्तस्वभाव कह्यो तेमां ए
विशेषता छे के रागादि विकारभावो तेमां न आवे. ज्ञानलक्षणे लक्षित जे अमूर्तस्वभाव
छे ते अहीं बताव्यो छे एटले तेमां पुण्य–पापरहित निर्मळ अमूर्तपणुं ज आवे छे;
विकार आ अमूर्तपणामां समातो नथी, केमके ते ‘ज्ञानलक्षणे लक्षित’ नथी.