Atmadharma magazine - Ank 294
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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चैत्र २४९४ : आत्मधर्म : १३
अतीन्द्रिय आत्मिक अकर्मिक (शुभ–अशुभ कर्म रहित) निर्दोष मोक्षमय ने
बंधरहित एवो आनंद पोतामां अनुभव्यो छे; अने नित्य पदार्थना नित्य स्वरूपना
आधारे (अरूपी चेतन असंख्यप्रदेशना आधारे) होवाथी ते आनंद पण नित्य बाधा
वगरनो थयो. अन्य पदार्थनुं अवलंबन ते आनंदमां न रह्युं. आवा स्वाधीन आनंदरूप
तमे पोते ज छो.
अहीं आम जाणवुं के तमे आवा स्वपदार्थना निर्णयथी बुद्धिपूर्वक बाधाओनी
कल्पना नहि करो त्यारे कोई वार अति विवेकथी निर्विकल्प थशो; केमके जे बाह्य पदार्थो
माटे विकल्प हता तेमनी जरूर ज भासी नहि तेथी ईन्द्रियो–मन तेना विषयोप्रत्ये संकल्प–
विकल्पवाळा थया नहि, ने उपयोग तेमनाथी पाछो वळीने निजस्वरूपमां एकाग्र रह्यो.
समस्त बाह्य पदार्थोथी जुदा पोताना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावथी ज मतलब वाळा होवाथी
अन्यनी चिन्तानो वेपार ज्यारे अटकी जाय छे त्यारे वीतरागउपयोग निजस्वरूपमां
जोडाईने आनंदने वेदे छे. अंधारा पछी शून्य नथी पण उजास छे तेम अन्यनी चिन्ताना
अभावमां शून्य नथी पण पोताना असंख्य प्रदेशमां निजस्वरूपनो आनंद छे....अनंत
गुणना स्वादनुं अत्यंत मधुर आस्वादन छे.
आ रीते एकवार निर्विकल्प थईने उपयोगजीवनने जाण्युं ने निजस्वरूपना
आनंदनो नमूनो चाख्यो; पण हजी पूर्ण वीतरागता ने पूर्ण आनंद नथी एटले कंईक राग
अने दुःख पण थाय छे. पर पदार्थनुं लक्ष करीने अशुभ ने शुभ भावो थाय छे, अने
तेटली आकुळता होवाथी दुःख छे. आम एक तरफ थोडुं दुःख, अने बीजी तरफ पोताना
आत्मपदार्थने अबाधित निर्णयमां लीधो होवाथी तेना अवलंबने अतीन्द्रियसुख, एम
बंने धारा मिश्ररूप चालशे. तेम छतां, पोतान चेतनभावथी जीववारूप स्वाधीन–जीवन
पसंद कर्युं होवाथी शुभ–अशुभभावोनी के तेना आलंबनरूप बाह्यविषयोनी रुचि छूटी
गई छे; तेमां क्यांय पोतानुं जीवन के सुख भासतुं नथी. शरीर वगर, खोराक वगर, राग
वगर मने मारुं आत्मजीवन मळ्‌युं छे, एटले सुख माटे हवे बीजुं कांई शोधवापणुं रह्युं
नहि. आ शरीर आव्युं ने छूटयुं–ए कांई मारुं जीवन नथी, मारुं जीवन तो देह वगरनुं
अनादिअनंत छे, स्वयंसिद्ध पोताथी ज छे. आवुं लांबु अने सुखीजीवन आहार वगर
जीवी शकाय छे, राग वगर जीवी शकाय छे. केमके स्ववस्तुनुं अस्तित्व ज एवुं छे जे
चेतनामय ने सुखमय रह्या करे. तेने रहेवा माटे–टकवा माटे–जीववा माटे कोई बीजानी
जरूर रहेती नथी. अनंत सिद्धभगवंतो आवुं सुखी जीवन सदाकाळ जीवे छे.
आवुं सुखीजीवन जे आत्मभावथी प्राप्त थाय तेनुं नाम धर्म.
धर्म एटले सुख....ने सुख एटले आत्मानो धर्म.
धर्म वडे ज महा आनंदथी भरपूर अमर–जीवन प्राप्त थाय छे.